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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यन्मन्य॑से॒ वरे॑ण्य॒मिन्द्र॑ द्यु॒क्षं तदा भ॑र। वि॒द्याम॒ तस्य॑ ते व॒यमकू॑पारस्य दा॒वने॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । मन्य॑से । वरे॑ण्यम् । इन्द्र॑ । द्यु॒क्षम् । तत् । आ । भ॒र॒ । वि॒द्याम॑ । तस्य॑ । ते॒ । व॒यम् । अकू॑पारस्य । दा॒वने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मन्यसे वरेण्यमिन्द्र द्युक्षं तदा भर। विद्याम तस्य ते वयमकूपारस्य दावने ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। मन्यसे। वरेण्यम्। इन्द्र। द्युक्षम्। तत्। आ। भर। विद्याम। तस्य। ते। वयम्। अकूपारस्य। दावने ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (यत्) = जिस (द्युक्षम्) = दीप्त सोम को (वरेण्यम्) = वरणीय व श्रेष्ठ मन्यसे मानते हैं, (तद् आभर) = उसे हमारे लिये प्राप्त कराइये । [२] (वयम्) = हम (तस्य) = उस (अकूपारस्य) = अकुत्सित पारवाले, अत्यन्त प्रशस्त परिणामवाले, इस सोम के (ते दावने) = आपसे दिये जानेवाले दान में विद्याम- हों आपकी कृपा से हमें यह सोम प्राप्त हो, जो कि हमारे जीवन में सब शुभ परिणामों को पैदा करता है और जिस सोम के कारण हमारा निवास [क्षि] सदा ज्ञानदीप्ति [द्यु] में होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम हमारे जीवन में सब शुभ परिणामों को पैदा करता है, यह अकूपार है, अकुत्सित पार वाला, शुभ परिणामवाला ।

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