ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मध्ये॒ होता॑ दुरो॒णे ब॒र्हिषो॒ राळ॒ग्निस्तो॒दस्य॒ रोद॑सी॒ यज॑ध्यै। अ॒यं स सू॒नुः सह॑स ऋ॒तावा॑ दू॒रात्सूर्यो॒ न शो॒चिषा॑ ततान ॥१॥
स्वर सहित पद पाठमध्ये॑ । होता॑ । दु॒रो॒णे । ब॒र्हिषः॑ । राट् । अ॒ग्निः । तो॒दस्य॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । यज॑ध्यै । अ॒यम् । सः । सू॒नुः । सह॑सः । ऋ॒तऽवा॑ । दू॒रात् । सूर्यः॑ । न । शो॒चिषा॑ । त॒ता॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मध्ये होता दुरोणे बर्हिषो राळग्निस्तोदस्य रोदसी यजध्यै। अयं स सूनुः सहस ऋतावा दूरात्सूर्यो न शोचिषा ततान ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमध्ये। होता। दुरोणे। बर्हिषः। राट्। अग्निः। तोदस्य। रोदसी इति। यजध्यै। अयम्। सः। सूनुः। सहसः। ऋतऽवा। दूरात्। सूर्यः। न। शोचिषा। ततान ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - राट् - ऋतावा
पदार्थ -
[१] वह (होता) = सर्वप्रदाता (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (तोदस्य) = शत्रुओं का संहार करनेवाले यज्ञशील पुरुष के (दुरोणे) = गृह में (बर्हिषः मध्ये) = वासना शून्य हृदय के मध्य में (राट्) = [राजते] प्रकाशित होते हैं और (रोदसी यजध्यै) = द्यावापृथिवी का, मस्तिष्क व शरीर का उसके साथ संगतिकरण करते हैं। हृदय में प्रभु का प्रकाश होने पर मस्तिष्क ज्ञान ज्योति से दीप्त और शरीर शक्ति सम्पन्न बनता है। [२] (अयम्) = ये (सः) = वे प्रभु (सहसः सूनुः) = बल पुञ्ज हैं। (ऋतावा) = हमारे जीवनों में ऋत का रक्षण करनेवाले हैं अथवा ऋतवाले हैं, प्रत्येक पिण्ड को ऋत के अनुसार गतिमय कर रहे हैं वे प्रभु (सूर्यः न) = सूर्य के समान (दूरात्) = सुदूर प्रदेश तक (शोचिषा ततान) = दीप्ति से सारे ब्रह्माण्ड को विस्तृत करते हैं । अनन्त प्रकाशवाले प्रभु सारे ब्रह्माण्ड को दीप्त करते हैं। ।
भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर पवित्र हृदय बनें। उस हृदय में प्रभु चमकेंगे। हमारे मस्तिष्क को दीप्त व शरीर को सशक्त बनायेंगे। ये प्रभु अपनी दीप्ति से सारे ब्रह्माण्ड को दीप्त कर रहे हैं ।
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