ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न ते॒ अन्तः॒ शव॑सो धाय्य॒स्य वि तु बा॑बधे॒ रोद॑सी महि॒त्वा। आ ता सू॒रिः पृ॑णति॒ तूतु॑जानो यू॒थेवा॒प्सु स॒मीज॑मान ऊ॒ती ॥५॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । अन्तः॑ । शव॑सः । धा॒यि॒ । अ॒स्य । वि । तु । बा॒ब॒धे॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । आ । ता । सू॒रिः । पृ॒ण॒ति॒ । तूतु॑जानः । यू॒थाऽइ॑व । अ॒प्ऽसु । स॒म्ऽईज॑मानः । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते अन्तः शवसो धाय्यस्य वि तु बाबधे रोदसी महित्वा। आ ता सूरिः पृणति तूतुजानो यूथेवाप्सु समीजमान ऊती ॥५॥
स्वर रहित पद पाठन। ते। अन्तः। शवसः। धायि। अस्य। वि। तु। बाबधे। रोदसी इति। महिऽत्वा। आ। ता। सूरिः। पृणति। तूतुजानः। यूथाऽइव। अप्ऽसु। सम्ऽईजमानः। ऊती ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
विषय - प्रभु के अनन्त बल का अपने में धारण
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (ते अस्य शवसः) = आपके इस बल का (अन्तः) = अन्त (न धायि) = नहीं जाना जाता [अव धायि] । अनन्त आपका बल है। इस बल के (महित्वा) = महत्त्व से (तु) = तो आप (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (विबाबधे) = विशेषरूप से बद्ध करते हैं। आप अपने बल के द्वारा सारे ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए हैं। [२] (सूरि:) = स्तोता पुरुष (ऊती) = सोम के रक्षण के द्वारा तू (तूतुजान:) = सब अशुभों का संहार करता हुआ, (समीजमानः) = सम्यक् यजन व पूजन करता हुआ (ता आपृणति) = उन बलों को अपने अन्दर आपूरित करता है। उसी प्रकार उन बलों को आपूरित करता है (इव) = जैसे कि (यूथा) = इन्द्रिय समूहों को (अप्सु) = कर्मों में आपूरित करता है। वस्तुतः इन्द्रियों को कर्मों में लगाये रखने पर ही जीवन वासना शून्य बनता है और इन कर्मों द्वारा, प्रभु-पूजन होकर, प्रभु के बलों को अपने में धारण करने का सम्भव होता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का अनन्त बल है जिसके द्वारा वे सारे ब्रह्माण्ड को बद्ध किये हुए हैं। एक स्तोता कर्मों द्वारा प्रभु-पूजन करता हुआ इन बलों से अपने को आपूरित करता है।
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