ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॒ पिब॒ तुभ्यं॑ सु॒तो मदा॒याव॑ स्य॒ हरी॒ वि मु॑चा॒ सखा॑या। उ॒त प्र गा॑य ग॒ण आ नि॒षद्याथा॑ य॒ज्ञाय॑ गृण॒ते वयो॑ धाः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । पिब॑ । तुभ्य॑म् । सु॒तः । मदा॑य । अव॑ । स्य॒ । हरी॒ इति॑ । वि । मु॒च॒ । सखा॑या । उ॒त । प्र । गा॒य॒ । ग॒णे । आ । नि॒ऽसद्य । अथ॑ । य॒ज्ञाय॑ । गृ॒ण॒ते । वयः॑ । धाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र पिब तुभ्यं सुतो मदायाव स्य हरी वि मुचा सखाया। उत प्र गाय गण आ निषद्याथा यज्ञाय गृणते वयो धाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। पिब। तुभ्यम्। सुतः। मदाय। अव। स्य। हरी इति। वि। मुच। सखाया। उत। प्र। गाय। गणे। आ। निऽसद्य। अथ। यज्ञाय। गृणते। वयः। धाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
विषय - जीव का मौलिक कर्त्तव्य -
पदार्थ -
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (पिब) = तू इस सोम का पान कर। (तुभ्यम्) = तेरे लिये (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ यह सोम (मदाय) = हर्ष के लिये होता है। (हरी) = तू इन्द्रियाश्वों को (अव स्य) = विषय बन्धन से छुड़ा। (सखाया) = सखिभूत इन इन्द्रियाश्वों को (वि मुचा) = विशिष्ट प्रयत्न द्वारा वासना बन्धन से मुक्त कर। [२] (उत) = और (गणे) = समूह में (आ निषद्य) = स्थित होकर (प्रगाय) = प्रभु के गुणों का गान कर। सारे परिवारवाले इकट्ठे बैठकर प्रभु का गुणगान करें (अथा) = अब (यज्ञाय) = उपासनीय (गृणते) = वेदोपदेश देनेवाले उस प्रभु के लिये (वयः धा:) = जीवन को धारण कर । अर्थात् तेरा जीवन प्रभु के लिये अर्पित हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हम सोम का रक्षण करें। इन्द्रियाश्वों को विषय बन्धन से मुक्त करें। मिलकर प्रभु का गुणगान करें। जीवन को प्रभु के लिये अर्पित करें।
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