ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
हु॒वे वो॑ दे॒वीमदि॑तिं॒ नमो॑भिर्मृळी॒काय॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निम्। अ॒भि॒क्ष॒दाम॑र्य॒मणं॑ सु॒शेवं॑ त्रा॒तॄन्दे॒वान्त्स॑वि॒तारं॒ भगं॑ च ॥१॥
स्वर सहित पद पाठहु॒वे । वः॒ । दे॒वीम् । अदि॑तिम् । नमः॑ऽभिः । मृ॒ळी॒काय॑ । वरु॑णम् । मि॒त्रम् । अ॒ग्निम् । अ॒भि॒ऽक्ष॒दाम् । अ॒र्य॒मण॑म् । सु॒ऽशेव॑म् । त्रा॒तॄन् । दे॒वान् । स॒वि॒तार॑म् । भग॑म् । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हुवे वो देवीमदितिं नमोभिर्मृळीकाय वरुणं मित्रमग्निम्। अभिक्षदामर्यमणं सुशेवं त्रातॄन्देवान्त्सवितारं भगं च ॥१॥
स्वर रहित पद पाठहुवे। वः। देवीम्। अदितिम्। नमःऽभिः। मृळीकाय। वरुणम्। मित्रम्। अग्निम्। अभिऽक्षदाम्। अर्यमणम्। सुऽशेवम्। त्रातॄन्। देवान्। सवितारम्। भगम्। च ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - वमाता व देवों का आह्वान
पदार्थ -
[१] (वः) = तुम्हारे जीवन को (देवीम्) = प्रकाशमय बनानेवाली (अदितिम्) = अदीना देवमाता को (हुवे) = पुकारता हूँ। वस्तुत: ('अ-दितिम्') = अखण्डन स्वास्थ्य का अभंग ही सब दिव्य गुणों के विकास का आधार बनता है। इसी अदिति को मैं पुकारता हूँ, प्राप्त करने के लिये यत्नशील होता हूँ । (मृडीकाय) = सुख की प्राप्ति के लिये (वरुणम्) = द्वेष निवारण की देवता को (मित्रम्) = स्नेह की देवता को तथा (अग्निम्) = प्रगति की देवता को पुकारता हूँ। निर्देष व प्रेमय बनकर मैं निरन्तर आगे बढ़ता हूँ। यही तो सुख प्राप्ति का मार्ग है । [२] मैं सुख प्राप्ति के लिये (अभिक्षदाम्) = शत्रुओं के हिंसक (सुशेवम्) = उत्तम कल्याण को करनेवाले (अर्यमणम्) = [अरीन् यच्छति] काम-क्रोध आदि के नियन्ता देव को पुकारता हूँ। अन्य सब (त्रातॄन्) = रक्षा करनेवाले (देवान्) = देवों को, दिव्यभावों को (च) = तथा (सवितारं भगम्) = प्रेरक उपासनीय [भज सेवायाम्] प्रभु को पुकारता हूँ।
भावार्थ - भावार्थ- मैं स्वस्थ बनूँ । निर्देषता, स्नेह व प्रगतिशीलतावाला मेरा जीवन हो । शत्रुहिंसक सुखकारी नियमन के भाव को प्रेरणा देनेवाले को, सब दिव्यगुणों को प्राप्त करने के लिये यत्नशील बनूँ । प्रेरक प्रभु की उपासना करूँ।
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