ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मू॒र्धानं॑ दि॒वो अ॑र॒तिं पृ॑थि॒व्या वै॑श्वान॒रमृ॒त आ जा॒तम॒ग्निम्। क॒विं स॒म्राज॒मति॑थिं॒ जना॑नामा॒सन्ना पात्रं॑ जनयन्त दे॒वाः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठमू॒र्धान॑म् । दि॒वः । अ॒र॒तिम् । पृ॒थि॒व्याः । वै॒श्वा॒न॒रम् । ऋ॒ते । आ । जा॒तम् । अ॒ग्निम् । क॒विम् । स॒म्ऽराजम् । अति॑थिम् । जना॑नाम् । आ॒सन् । आ । पात्र॑म् । ज॒न॒य॒न्त॒ । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आ जातमग्निम्। कविं सम्राजमतिथिं जनानामासन्ना पात्रं जनयन्त देवाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमूर्धानम्। दिवः। अरतिम्। पृथिव्याः। वैश्वानरम्। ऋते। आ। जातम्। अग्निम्। कविम्। सम्ऽराजम्। अतिथिम्। जनानाम्। आसन्। आ। पात्रम्। जनयन्त। देवाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - मूर्धानं दिवः- अरतिं पृथिव्याः
पदार्थ -
[१] मुख्यरूप से वैश्वानर सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु हैं। मानव समाज में ब्रह्माश्रम में पहुँचनेवाला संन्यासी भी 'वैश्वानर' है । इस वैश्वानर को देवा: = 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व प्रभु' रूप देव जनयन्त= जन्म देते हैं । ५ वर्ष तक माता इसके चरित्र निर्माण का प्रयत्न करती है, अब पिता ८ वर्ष तक इसे शिष्टाचार सम्पन्न बनाने के लिये यत्नशील होते हैं। फिर २५ वर्ष तक आचार्य इसे ज्ञान से परिपूर्ण करते हैं। फिर ५० वर्ष तक गृहस्थ में विद्वान् अतिथि इसे मोह में फँस जाने व मार्गभ्रष्ट होने से बचाते हैं। अब ७५ वर्ष तक यह प्रभु की उपासना के लिये यत्नशील होता है और ब्रह्माश्रम में पहुँचकर लोकहित में प्रवृत्त होता है। इसे देव कैसा बनाते हैं? (दिवः मूर्धानम्) = ज्ञान के शिखरभूत और अतएव (पृथिव्याः अरतिम्) = पार्थिव भोगों के प्रति न रुचिवाला और (वैश्वानरम्) = सब लोकों के हित में प्रवृत्त । [२] यह वैश्वानर (ऋते आजातम्) = ऋत के अनुभव के लिये ही मानो उत्पन्न हुआ है, अर्थात् इसके सब कार्य बड़े व्यवस्थित होते हैं, ठीक समय पर व ठीक स्थान पर। (अग्निम्) = यह अग्रेणी है, अपने को आगे ले चलता हुआ औरों की भी उन्नति का कारण बनता है। (कविम्) = क्रान्तदर्शी है, चीजों के तत्त्व को देखता है। (सम्राजम्) = यह ज्ञान से देदीप्यमान होता है। (जनानां अतिथिम्) = लोगों का अतिथि बनता है, अर्थात् उनके हित के लिये उनके समीप सदा प्राप्त होनेवाला होता है। (आसन्) = मुख के द्वारा, ज्ञानोपदेश के द्वारा (आ पात्रम्) = सब ओर रक्षा करनेवाला होता है। इस प्रकार के इस ब्रह्माश्रमी के निर्माण में माता आदि सब देवों का हाथ होता है।
भावार्थ - भावार्थ- आदर्श संन्यासी उत्कृष्ट ज्ञानवाला व भोगों के प्रति अरुचिवाला होकर ज्ञानोपदेश से सबका मार्गदर्शन करता है।
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