ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
नू मर्तो॑ दयते सनि॒ष्यन्यो विष्ण॑व उरुगा॒याय॒ दाश॑त् । प्र यः स॒त्राचा॒ मन॑सा॒ यजा॑त ए॒ताव॑न्तं॒ नर्य॑मा॒विवा॑सात् ॥
स्वर सहित पद पाठनु । मर्तः॑ । द॒य॒ते॒ । स॒नि॒ष्यन् । यः । विष्ण॑वे । उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ । दाश॑त् । प्र । यः । स॒त्राचा॑ । मन॑सा । यजा॑ते । ए॒ताव॑न्तम् । नर्य॑म् । आ॒ऽविवा॑सात् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू मर्तो दयते सनिष्यन्यो विष्णव उरुगायाय दाशत् । प्र यः सत्राचा मनसा यजात एतावन्तं नर्यमाविवासात् ॥
स्वर रहित पद पाठनु । मर्तः । दयते । सनिष्यन् । यः । विष्णवे । उरुऽगायाय । दाशत् । प्र । यः । सत्राचा । मनसा । यजाते । एतावन्तम् । नर्यम् । आऽविवासात् ॥ ७.१००.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 100; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
विषय - यशस्वी दान
पदार्थ -
पदार्थ- (यः) = जो (मर्त्तः) = मनुष्य, (सनिष्यन्) = दान देने की इच्छा से (दयते) = दान देता, दया करता है वही (उरु-गायाय) = बहुतों से स्तुतियोग्य (विष्णवे) = परमेश्वर के निमित्त (दाशत्) = दान करे ! (यः) = जो मनुष्य (सत्राचा मनसा) = सत्यनिष्ठ मन से (प्र यजाते) = दान करता वा देव पूजा करता है वह (एतावन्तं) = उतना ही (नर्यम्) = मनुष्यों के हित की (आ विवासत्) = सेवा करता है।
भावार्थ - भावार्थ- जब मनुष्य दान देना चाहे तो मन में श्रद्धा रखकर ही देवें केवल दिखावे के लिए न देवे। वह अपने हृदय में यह भाव उत्पन्न करे कि ईश्वर सर्वव्यापक है, ये धन उसीका है अतः उसी को समर्पित है। उसी की प्रजाओं- जीवों के लिए मैं दे रहा हूँ। यह दान देवपूजा कहलाएगा। ऐसे निरभिमानी दानी की लोग प्रशंसा करेंगे।
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