ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
उ॒प॒सद्या॑य मी॒ळ्हुष॑ आ॒स्ये॑ जुहुता ह॒विः। यो नो॒ नेदि॑ष्ठ॒माप्य॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽसद्या॑य । मी॒ळ्हुषे॑ । आ॒स्ये॑ । जु॒हु॒त॒ । ह॒विः । यः । नः॒ । नेदि॑ष्ठम् । आप्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपसद्याय मीळ्हुष आस्ये जुहुता हविः। यो नो नेदिष्ठमाप्यम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठउपऽसद्याय। मीळ्हुषे। आस्ये। जुहुत। हविः। यः। नः। नेदिष्ठम्। आप्यम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - नेदिष्ठ आप्य [निकटतम बन्धु]
पदार्थ -
[१] (उपसद्याय) = उपसदनीय-उपासनीय, (मीढुषे) = सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु के लिये, अर्थात् उस प्रभु की प्राप्ति के लिये (आस्ये) = अपने मुखों में (हविः जुहुत) = हवि को ही आहुत करो। सदा त्यागपूर्वक ही अदन करनेवाले बनो। [२] उस प्रभु की प्राप्ति के लिये हवि को स्वीकार करो (यः) = जो (नः) = हमारे (नेदिष्ठम्) = अन्तिकतम (आप्यम्) = बन्धु हैं। [आपि से स्वार्थ में तद्धित प्रत्यय होकर 'आप्यं' बना है] । इस अन्तिकतम बन्धु की प्राप्ति त्यागपूर्वक अदन से ही होती है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु हमारे समीपतम सखा हैं। इनकी प्राप्ति का साधन यही है कि हम त्यागपूर्वक अदन करें।
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