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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आप्रियः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जु॒षस्व॑ नः स॒मिध॑मग्ने अ॒द्य शोचा॑ बृ॒हद्य॑ज॒तं धू॒ममृ॒ण्वन्। उप॑ स्पृश दि॒व्यं सानु॒ स्तूपैः॒ सं र॒श्मिभि॑स्ततनः॒ सूर्य॑स्य ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जु॒षस्व॑ । नः॒ । स॒म्ऽइध॑म् । अ॒ग्ने॒ । अ॒द्य । शोच॑ । बृ॒हत् । य॒ज॒तम् । धू॒मम् । ऋ॒ण्वन् । उप॑ । स्पृ॒श॒ । दि॒व्यम् । सानु॑ । स्तूपैः॑ । सम् । र॒श्मिऽभिः॑ । त॒त॒नः॒ । सूर्य॑स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुषस्व नः समिधमग्ने अद्य शोचा बृहद्यजतं धूममृण्वन्। उप स्पृश दिव्यं सानु स्तूपैः सं रश्मिभिस्ततनः सूर्यस्य ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जुषस्व। नः। सम्ऽइधम्। अग्ने। अद्य। शोच। बृहत्। यजतम्। धूमम्। ऋण्वन्। उप। स्पृश। दिव्यम्। सानु। स्तूपैः। सम्। रश्मिऽभिः। ततनः। सूर्यस्य ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने ! (अद्य) = आज (नः) = हमारी (समिधम्) = समिधा को सेवन करनेवाला हो (यजतम्) = संगतिकरण योग्य प्रशस्त (धूमम्) = धूयें को (ऋण्वन्) = प्रेरित करता हुआ तू (बृहत् शोच) = खूब दीप्त हो । अग्निहोत्र का धूंआ सचमुच 'यजत' है, यह सब रोगकृमियों का संहार करनेवाला है। [२] हे अग्ने ! तू (स्तूपैः) = अपनी सन्तप्त रश्मियों से (दिव्यं सानु) = आकाश के समुच्छ्रित [उन्नत] प्रदेश को (उपस्पृश) = छूनेवाला हो। और (सूर्यस्य रश्मिभिः) = सूर्य की किरणों के साथ (संततन:) = सम्यक् विस्तारवाला हो । अर्थात् सूर्योदय होने पर अग्निकुण्डों में तेरा आधान किया जाये। सूर्य किरणें जब वृक्ष के हरे पत्तों पर पड़ती हैं तो ये पत्ते अग्नि के जलने से उत्पन्न कार्बानिक ऐसिड गैस [CO₂] को फाड़ के कार्बन को अपने पास रख लेते हैं और ऑक्सिजन को फिर वायुमण्डल में भेज देते हैं। सो अग्निहोत्र सूर्योदय के होने पर ही होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञाग्नि में समिधा को डालें। अग्नि प्रशस्त धूम को प्रेरित करता हुआ चमके। इस की सन्तप्त रश्मियाँ आकाश के शिखर को छूएँ। हम सूर्योदय होने पर यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करें।

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