साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
यद्वि॒जाम॒न्परु॑षि॒ वन्द॑नं॒ भुव॑दष्ठी॒वन्तौ॒ परि॑ कु॒ल्फौ च॒ देह॑त्। अ॒ग्निष्टच्छोच॒न्नप॑ बाधतामि॒तो मा मां पद्ये॑न॒ रप॑सा विद॒त्त्सरुः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वि॒ऽजाम॑न् । परु॑षि । वन्द॑नम् । भुव॑त् । अ॒ष्ठी॒वन्तौ॑ । परि॑ । कु॒ल्फौ । च॒ । देह॑त् । अ॒ग्निः । तत् । शोच॑न् । अप॑ । बा॒ध॒ता॒म् । इ॒तः । मा । माम् । पद्ये॑न । रप॑सा । वि॒द॒त् । त्सरुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्विजामन्परुषि वन्दनं भुवदष्ठीवन्तौ परि कुल्फौ च देहत्। अग्निष्टच्छोचन्नप बाधतामितो मा मां पद्येन रपसा विदत्त्सरुः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयत्। विऽजामन्। परुषि। वन्दनम्। भुवत्। अष्ठीवन्तौ। परि। कुल्फौ। च। देहत्। अग्निः। तत्। शोचन्। अप। बाधताम्। इतः। मा। माम्। पद्येन। रपसा। विदत्। त्सरुः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - अग्नि चिकित्सा
पदार्थ -
पदार्थ - (यत्) = जो (वन्दनं) = देह को जकड़नेवाला विष (विजामन्) = विविध पीड़ा के उत्पत्ति स्थान रूप पेट या (परुषि) = सन्धि स्थान पर (भुवत्) = उत्पन्न होता है और जो (अष्ठीवन्तौ) = स्थूल अस्थि से युक्त गोडों और (कुल्फौ) = पैर के टखनों को (परि देहत्) = सुजा दे, (तत्) = उस विषमय रोग को (अग्निः) = अग्नि तत्त्व (शोचत्) = सन्तप्त करता हुआ (इतः बाधताम्) = इस देह से दूर करे। (त्सरुः) = छद्म गति से छुए देह में फैलनेवाला रोग (पद्येन रपसा) = पैर में विद्यमान दुःखदायी रोग रूप से (मा मां विदत्) = मुझे प्राप्त न हो।
भावार्थ - भावार्थ- कुशल वैद्य अग्नि प्रधान द्रव्यों से गठिया, सन्धिवात- जोड़ों के दर्द आदि रोगों को दूर करके प्रजा को नीरोग करे। इसके साथ सूर्य किरण चिकित्सा, अग्निताप चिकित्सा आदि प्राकृतिक पद्धति का भी आश्रय लेवें।
इस भाष्य को एडिट करें