ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
ऋषिः - मेधातिथिः
देवता - विभिन्दोर्दानस्तुतिः
छन्दः - निचृदार्षीगायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒त सु त्ये प॑यो॒वृधा॑ मा॒की रण॑स्य न॒प्त्या॑ । ज॒नि॒त्व॒नाय॑ मामहे ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । सु । त्ये इति॑ । प॒यः॒ऽवृधा॑ । मा॒की इति॑ । रण॑स्य । न॒प्त्या॑ । ज॒नि॒ऽत्व॒नाय॑ । म॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत सु त्ये पयोवृधा माकी रणस्य नप्त्या । जनित्वनाय मामहे ॥
स्वर रहित पद पाठउत । सु । त्ये इति । पयःऽवृधा । माकी इति । रणस्य । नप्त्या । जनिऽत्वनाय । ममहे ॥ ८.२.४२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 42
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 7
विषय - जगतः पितरौ [प्रकृति परमेश्वरौ]
पदार्थ -
[१] (उत) = और (त्ये) = उन (पयोवृधा) = शक्ति व ज्ञानदुग्ध के द्वारा हमारा वर्धन करनेवाले, (रणस्य) = रमणीयता का (माकी) = [निर्मात्र्यौ] निर्माण करनेवाले (नप्त्या) = हमारा पतन न होने देनेवाले माता- पितृरूप प्रकृति व परमेश्वर को (जनित्वनाय) = शक्तियों के प्रादुर्भाव के लिये (सुमामहे) = उत्तमता से पूजते हैं। [२] प्रकृति शरीर को सशक्त बनाती है, प्रभु आत्मा को सज्ञान बनाते हैं। इस प्रकार प्रकृति व प्रभु मिलकर जीवरूप सन्तान का पालन करते हैं। शक्ति व ज्ञान के द्वारा ये हमारे जीवन को कितना ही सुन्दर बनाते हैं ?
भावार्थ - भावार्थ- प्रकृति व परमेश्वर इस जगत् के माता-पिता के समान हैं। ये शक्ति व ज्ञानदुग्ध के द्वारा हमारा वर्धन करते हैं, हमारे जीवन में रमणीयता का निर्माण करते हैं, हमें गिरने नहीं देते। हम इन दोनों का आराधन करते हैं। इस सूक्त के मन्त्र चालीस में 'मेध्यातिथि काण्व' का उल्लेख है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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