ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
ता वां॒ विश्व॑स्य गो॒पा दे॒वा दे॒वेषु॑ य॒ज्ञिया॑ । ऋ॒तावा॑ना यजसे पू॒तद॑क्षसा ॥
स्वर सहित पद पाठता । वा॒म् । विश्व॑स्य । गो॒पा । दे॒वा । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञिया॑ । ऋ॒तऽवा॑ना । य॒ज॒से॒ । पू॒तऽद॑क्षसा ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता वां विश्वस्य गोपा देवा देवेषु यज्ञिया । ऋतावाना यजसे पूतदक्षसा ॥
स्वर रहित पद पाठता । वाम् । विश्वस्य । गोपा । देवा । देवेषु । यज्ञिया । ऋतऽवाना । यजसे । पूतऽदक्षसा ॥ ८.२५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - 'संसार के रक्षक' मित्रावरुण
पदार्थ -
[१] (ता) = वे (वाम्) = आप दोनों [युवां ] स्नेह व निर्देषता के भावो ! (विश्वस्य गोपा) = संसार के रक्षक हो। स्नेह व निर्देषता के अभाव में संसार का विनाश है। (देवा) = ये प्रकाशमय हैं, (देवेषु यज्ञिया) = सब दिव्यगुणों में संगतिकरण योग्य हैं। [२] (ऋतावाना) = ये स्नेह व निर्देषता के भाव हमारे जीवनों में ऋत का रक्षण करनेवाले हैं। (पूतदक्षसा) = हमारे बलों को पवित्र बनानेवाले हैं। हे विश्वमना वैयश्व ! तू (यजसे) = इनका अपने साथ मेल करता है। इन भावों को अपनाकर ही वस्तुतः तू 'विश्वमना वैयश्व' बनता है।
भावार्थ - भावार्थ-स्नेह व निर्देषता के भाव ही संसार के रक्षक हैं, प्रकाशमय हैं, सब दिव्यगुणों में श्रेष्ठ व संगतिकरण योग्य हैं, हमारे जीवनों में ऋत का रक्षण करते हैं और हमारे बलों को पवित्र बनाते हैं।
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