ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
इ॒मे विप्र॑स्य वे॒धसो॒ऽग्नेरस्तृ॑तयज्वनः । गिर॒: स्तोमा॑स ईरते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । विप्र॑स्य । वे॒धसः॑ । अ॒ग्नेः । अस्तृ॑तऽयज्वनः । गिरः॑ । स्तोमा॑सः । ई॒र॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे विप्रस्य वेधसोऽग्नेरस्तृतयज्वनः । गिर: स्तोमास ईरते ॥
स्वर रहित पद पाठइमे । विप्रस्य । वेधसः । अग्नेः । अस्तृतऽयज्वनः । गिरः । स्तोमासः । ईरते ॥ ८.४३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
विषय - 'विप्र-वेधा- अग्नि अस्तृतयज्वा' प्रभु
पदार्थ -
[१] (इमे) = ये (स्तोमासः) = स्तुतियुक्त मन्त्रों द्वारा स्तुति करनेवाले उपासक लोग (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु की (गिरः) = स्तुतिवाणियों का ईरते उच्चारण करते हैं। [२] उन प्रभु की स्तुतिवाणियों का उच्चारण करते हैं जो (विप्रस्य) = विशेषरूप से सबका पूरण करनेवाले ज्ञानी हैं। (वेधसः) = जगत के (विधाता) = निर्माण करनेवाले हैं। (अस्तृतयज्वनः) = यज्ञशील पुरुषों को नष्ट न होने देनेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम उस प्रभु की स्तुतिवाणियों का उच्चारण करें, जो 'विप्र-वेधाः- अग्नि व अस्तृतयज्वा ' हैं।
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