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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    दू॒रादि॒हेव॒ यत्स॒त्य॑रु॒णप्सु॒रशि॑श्वितत् । वि भा॒नुं वि॒श्वधा॑तनत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒रात् । इ॒हऽइ॑व । यत् । स॒ती । अ॒रु॒णऽप्शुः । अशि॑श्वितत् । वि । भा॒नुम् । वि॒श्वधा॑ । अ॒त॒न॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूरादिहेव यत्सत्यरुणप्सुरशिश्वितत् । वि भानुं विश्वधातनत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूरात् । इहऽइव । यत् । सती । अरुणऽप्शुः । अशिश्वितत् । वि । भानुम् । विश्वधा । अतनत् ॥ ८.५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (दूरात्) = सुदूर प्रदेश में, प्राचीदिग्भाग में होती हुई यह उषा (यत्) = जब (इह एव सती) = यहाँ हमारे समीप ही होती हुई प्रतीत होती है, तो यह (अरुणप्सुः) = अव्यक्त लालिमा सम्पन्न रूपवाली उषा (अशिश्वितत्) = सारे आकाश को [सफेद] ही कर डालती है। (भानुम्) = अपने प्रकाश को (विश्वधा) = सब ओर (वि अतनत्) = विशेषरूप से फैलानेवाली होती है। [२] इसी प्रकार इस उषा के समान एक युवति (दूरात्) = बड़े दूर स्थित पितृगृह से (यत्) = जब (इह एव) = यहाँ पतिकुल में ही सती होती हुई (अरुणप्सुः) = स्वास्थ्य की लालिमा युक्त रूपवाली (अशिश्वितत्) = सारे घर को उज्वल करनेवाली होती है तो यह (भानुम्) = प्रकाश को (विश्वधा) = सब ओर अड़ोस-पड़ोस में (वि अत्यनत्) = विशेषरूप से फैलाती है। इसके आने से घर और घर का सारा क्षेत्र चमक उठता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- उषा आती है और किस प्रकार अन्धकार को दूर करके प्रकाश को फैलाती है। इसी प्रकार एक युवति को पतिकुल में आकर प्रकाश को फैलानेवाली बनना है।

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