Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 107 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    परी॒तो षि॑ञ्चता सु॒तं सोमो॒ य उ॑त्त॒मं ह॒विः । द॒ध॒न्वाँ यो नर्यो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । इ॒तः । सि॒ञ्च॒त॒ । सु॒तम् । सोमः॑ । यः । उ॒त्ऽत॒मम् । ह॒विः । द॒ध॒न्वान् । यः । नर्यः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । आ । सु॒साव॑ । सोम॑म् । अद्रि॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीतो षिञ्चता सुतं सोमो य उत्तमं हविः । दधन्वाँ यो नर्यो अप्स्व१न्तरा सुषाव सोममद्रिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । इतः । सिञ्चत । सुतम् । सोमः । यः । उत्ऽतमम् । हविः । दधन्वान् । यः । नर्यः । अप्ऽसु । अन्तः । आ । सुसाव । सोमम् । अद्रिऽभिः ॥ ९.१०७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (सुतम्) = उत्पन्न हुए हुए सोम को (इतः) = इस उत्पत्ति स्थल से (परिषिञ्चत) = शरीर में चारों ओर सिक्त करो। (यः सोमः) = यह जो सोम है, वह (उत्तमं हविः) = उत्तम हवि है। यज्ञ में जैसे हवि का प्रक्षेप होता है, उसी प्रकार जीवन-यज्ञ में इस सोम रूप हवि का प्रक्षेप करना चाहिये । इसे नष्ट नहीं होने देना चाहिये । (यः) = जो सोम (दधन्वान्) = हमारा धारण करता है, (नर्यः) = नरहितकारी है, (अप्सु अन्तरा) = सदा कर्मों में इसका निवास है। कर्मों में लगे रहने से ही यह सुरक्षित रहता है । (सोमम्) = इस सोम को (अद्रिभिः) = उपासनाओं के द्वारा सुषाव उत्पन्न करता है। प्रभु की उपासना सोमरक्षण की अनुकूलतावाली है ।

    भावार्थ - भावार्थ - उत्पन्न सोम को जीवन-यज्ञ में ही आहुत करना चाहिये । वह धारण करता है, हितकारी है। इसका रक्षण कर्मों में लगे रहने व उपासना के द्वारा होता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top