ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सोम॑: पुना॒नो अ॑र्षति स॒हस्र॑धारो॒ अत्य॑विः । वा॒योरिन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसोमः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒र्ष॒ति॒ । स॒हस्र॑ऽधारः । अति॑ऽअविः । वा॒योः । इन्द्र॑स्य । निः॒ऽकृ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोम: पुनानो अर्षति सहस्रधारो अत्यविः । वायोरिन्द्रस्य निष्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसोमः । पुनानः । अर्षति । सहस्रऽधारः । अतिऽअविः । वायोः । इन्द्रस्य । निःऽकृतम् ॥ ९.१३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - गतिशील इन्द्र का 'निष्कृत'
पदार्थ -
[१] (सोमः) = वीर्य (वायो:) = गतिशील (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (निष्कृतम्) = संस्कृत हृदय को (अर्षति) = प्राप्त होता है। हृदय के पवित्र होने पर ही सोम शरीर में सुरक्षित होता है। हृदय की पवित्रता 'वायु व इन्द्र' को प्राप्त होती है। वायु गतिशील व्यक्ति है, जो कभी अकर्मण्य नहीं होता । इसीलिए इसे वासनाएँ नहीं सताती। आलस्य के साथ ही वासनाओं का सम्बन्ध है । इस सोमरक्षण के लिये जितेन्द्रियता भी आवश्यक है। अजितेन्द्रिय के लिये सोमरक्षण नितान्त असम्भव है । 'जितेन्द्रियता व पवित्रता' पर्यायवाची से शब्द हैं । [२] रक्षित हुआ हुआ सोम (पुनानः) = पवित्र करनेवाला होता है । (सहस्त्रधारः) = अनेक प्रकार से हमारा धारण करनेवाला है। (अत्यविः) = अतिशयेन रक्षण करनेवाला है। यह रोगकृमियों को नष्ट करके हमारे शरीरों का रक्षण करता है तथा 'इर्ष्या- द्वेष-क्रोध' को नष्ट करके हमारे मनों का रक्षण करता है। ज्ञानाग्नि का तो एक मात्र ईंधन होता हुआ यह बुद्धि का रक्षण करनेवाला होता है। इस प्रकार यह सर्वोत्तम रक्षक है।
भावार्थ - भावार्थ - गतिशील जितेन्द्रिय बनकर हम सोम का रक्षण करें। रक्षित हुआ हुआ यह हमें पवित्र करें, हमारा धारण करे, हमारे 'शरीर, मन व बुद्धि' का रक्षण करे।
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