ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र नि॒म्नेने॑व॒ सिन्ध॑वो॒ घ्नन्तो॑ वृ॒त्राणि॒ भूर्ण॑यः । सोमा॑ असृग्रमा॒शव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नि॒मेन॑ऽइव । सिन्ध॑वः । घ्नन्तः॑ । वृ॒त्राणि॑ । भूर्ण॑यः । सोमाः॑ । अ॒सृ॒ग्र॒म् । आ॒शवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र निम्नेनेव सिन्धवो घ्नन्तो वृत्राणि भूर्णयः । सोमा असृग्रमाशव: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । निमेनऽइव । सिन्धवः । घ्नन्तः । वृत्राणि । भूर्णयः । सोमाः । असृग्रम् । आशवः ॥ ९.१७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - भूर्णयः सोमाः
पदार्थ -
[१] (इव) = जैसे (निम्नेन) = निम्न मार्ग से (सिन्धवः) = नदियाँ बहती हैं और तीव्र गति से बहती हैं, इसी प्रकार (आशवः) = तीव्र गतिवाले (सोमाः) = सोमकण (असृग्रम्) = [सृज्यन्ते] शरीर में सृष्ट होते हैं । इनकी उत्पत्ति से शरीर में स्फूर्ति आ जाती है, सारा शरीर शीघ्र गति सम्पन्न, क्रियाशील बन जाता है। [२] निम्न मार्ग से जाती हुईं नदियाँ किनारों व बाधाओं को तोड़ती चलती हैं, इसी प्रकार ये सोम (वृत्राणि घ्नन्तः) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले होते हैं और (भूर्णयः) = हमारा पालन करते हैं [भृ भरणे] । हमारा पालन करते हुए क्षिप्रगतिवाले होते हैं [क्षिप्रगमना: नि० ] ।
भावार्थ - भावार्थ- सोम शरीर में शीघ्र गतिवाले होते हुए वासनाओं का विनाश करते हैं।
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