ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
पव॑स्व देव॒वीरति॑ प॒वित्रं॑ सोम॒ रंह्या॑ । इन्द्र॑मिन्दो॒ वृषा वि॑श ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । दे॒व॒ऽवीः । अति॑ । प॒वित्र॑म् । सो॒म॒ । रंह्या॑ । इन्द्र॑म् । इ॒न्दो॒ इति॑ । वृषा॑ । आ । वि॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । देवऽवीः । अति । पवित्रम् । सोम । रंह्या । इन्द्रम् । इन्दो इति । वृषा । आ । विश ॥ ९.२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - 'देववी' सोम
पदार्थ -
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (देववी:) = दिव्य गुणों की कामनावाली होती हुई (रंह्या) = बड़े वेग से, शीघ्रता से (पवित्रम्) = इस मेधातिथि के पवित्र हृदय को (अतिपवस्व) = अतिशयेन पवित्र करनेवाली हो । सोम के रक्षण से हृदय पवित्र होता है, दिव्य गुणों का वर्धन होता है । [२] हे (इन्दो) = हमारे जीवन को शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (वृषा) = सब सुखों का सेचन करनेवाला होता हुआ (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष के अन्दर (आविश) = समन्तात् प्रवेश करनेवाला हो । जितेन्द्रिय बनकर हम वासनाओं को विनष्ट करते हैं। इस वासना-विनाश से सोम का रक्षण होता है। रक्षित सोम जहाँ हमें शक्तिशाली बनाता है, वहाँ हमारे सब सुखों का कारण बनता है ।
भावार्थ - भावार्थ- सोम के रक्षण से [क] दिव्य गुणों का वर्धन होता है, [ख] शक्ति प्राप्त होती है, [ग] नीरोगता आदि के द्वारा जीवन सुखी बनता है ।
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