ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
समि॑द्धो वि॒श्वत॒स्पति॒: पव॑मानो॒ वि रा॑जति । प्री॒णन्वृषा॒ कनि॑क्रदत् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑द्धः । वि॒श्वतः॑ । पतिः॑ । पव॑मानः । वि । रा॒ज॒ति॒ । प्री॒णन् । वृषा॑ । कनि॑क्रदत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो विश्वतस्पति: पवमानो वि राजति । प्रीणन्वृषा कनिक्रदत् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइद्धः । विश्वतः । पतिः । पवमानः । वि । राजति । प्रीणन् । वृषा । कनिक्रदत् ॥ ९.५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - 'समिद्ध' सोम
पदार्थ -
[१] शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। ज्ञानाग्नि को दीप्त करने के कारण यहाँ सोम को 'समिद्ध' कहा गया है। सब ओर से शरीर का रक्षण करनेवाला यह 'विश्वतस्पति' है। पवित्र करनेवाला होने से 'पवमान' है। मस्तिष्क को यह 'समिद्ध' करता है। शरीर को 'रक्षित' करता है। मन को पवित्र बनाता है । मस्तिष्क के ज्ञानदीप्त होने से मैं 'काश्यप ' बनता हूँ। शरीर के रोगों से अनाक्रान्त होने से मैं 'अ-सित' = अबद्ध होता हूँ । मन में पवित्रता के कारण 'देवल' होता हूँ । [२] (समिद्धः) = ज्ञान को दीप्त करनेवाला, (विश्वतस्पतिः) = शरीर को सर्वतः सुरक्षित करनेवाला (पवमानः) = मेरे मन को पवित्र करनेवाला यह सोम (विराजति) = मेरे शरीर में दीप्त होता है। [३] (प्रीणन्) [प्रीणयन् ] = यह ज्ञानदीप्ति नीरोगता तथा पवित्रता से हमें प्रीणित करता है। (वृषा) = हमें शक्तिशाली बनाता है। (कनिक्रदत्) = हमें प्रभु के आह्वान की वृत्तिवाला बनाता है । सोम मानो सुरक्षित होकर प्रभु का आह्वान करता है, प्रभु की आराधना करता है।
भावार्थ - भावार्थ- सोम 'समिद्ध, विश्वतस्पति व पवमान' है। यह मेरे लिये 'प्रसन्नता, शक्ति व प्रभु की आराधना' का कारण बनता है ।
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