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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उत्सूर्यो॑ बृ॒हद॒र्चींष्य॑श्रेत्पु॒रु विश्वा॒ जनि॑म॒ मानु॑षाणाम् । स॒मो दि॒वा द॑दृशे॒ रोच॑मान॒: क्रत्वा॑ कृ॒तः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । सू॒र्यः॑ । बृ॒हत् । अ॒र्चींषि॑ । अ॒श्रे॒त् । पु॒रु । विश्वा॑ । जनि॑म । मानु॑षाणाम् । स॒मः । दि॒वा । द॒दृ॒शे॒ । रोच॑मानः । क्रत्वा॑ । कृ॒तः । सुऽकृ॑तः । क॒र्तृऽभिः॑ । भू॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्सूर्यो बृहदर्चींष्यश्रेत्पुरु विश्वा जनिम मानुषाणाम् । समो दिवा ददृशे रोचमान: क्रत्वा कृतः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । सूर्यः । बृहत् । अर्चींषि । अश्रेत् । पुरु । विश्वा । जनिम । मानुषाणाम् । समः । दिवा । ददृशे । रोचमानः । क्रत्वा । कृतः । सुऽकृतः । कर्तृऽभिः । भूत् ॥ ७.६२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (सूर्य्यः) सबके उत्पादक परमात्मा का (बृहत्, अर्चींषि) बड़ी ज्योतियाँ (अश्रेत्) आश्रय करती हैं, जो (विश्वा, मानुषाणाम्) निखिल ब्रह्माण्ड में स्थित मनुष्यों के (पुरु, जनिम) अनन्त जन्मों को (ददृशे) जानता और (समः, दिवा) सदा ही (रोचमानः) स्वतःप्रकाश है, वही (क्रत्वा कृतः) यज्ञरूप है और (कर्तृभिः) इस चराचर ब्रह्माण्ड की रचना ने जिसको (सुकृतः, भूतः) सर्वोपरि रचयिता वर्णन किया है ॥१॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो ! तुम उसी एकमात्र परमात्मा का आश्रयण करो, जो सब मनुष्यों के भूत, भविष्यत् तथा वर्त्तमान जन्मों को जानता, सदा एकरस रहता और जिसको इस चराचर ब्रह्माण्ड की रचना प्रतिदिन वर्णन करती है, वही स्वतःप्रकाश परमात्मा मनुष्यमात्र का उपास्यदेव है, इसी भाव से “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” यजु. १३।४६ में परमात्मा का सूर्य्य नाम से वर्णन किया है ॥१॥

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