ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
आ ग॑न्ता॒ मा रि॑षण्यत॒ प्रस्था॑वानो॒ माप॑ स्थाता समन्यवः । स्थि॒रा चि॑न्नमयिष्णवः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ग॒न्ता॒ । मा । रि॒ष॒ण्य॒त॒ । प्रऽस्था॑वानः । मा । अप॑ । स्था॒त॒ । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ । स्थि॒रा । चि॒त् । न॒म॒यि॒ष्ण॒वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थाता समन्यवः । स्थिरा चिन्नमयिष्णवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । गन्ता । मा । रिषण्यत । प्रऽस्थावानः । मा । अप । स्थात । सऽमन्यवः । स्थिरा । चित् । नमयिष्णवः ॥ ८.२०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
विषय - अब परमात्मोपासनाद्वारा ऐश्वर्यप्राप्त योद्धाओं के गुण और उनका कर्तव्य वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(प्रस्थावानः) हे गमनशील योद्धाओ ! (आगन्त) आप रक्षार्थ आह्वान किये गये आवें (मा, रिषण्यत) न आने से प्रजा को हिंसित मत करें (समन्यवः) आप शत्रुओं के ऊपर क्रोध करनेवाले हैं, केवल क्रोध ही नहीं, किन्तु (स्थिरा, चित्, नमयिष्णवः) स्थावरों को भी कम्पायमान करनेवाले हैं, इससे (मा, अपस्थात) हम सब प्रजाओं से प्रतिकूलस्थिति मत करें ॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उन वीर योद्धाओं का वर्णन है, जिनके तेज से भयभीत होकर दिशाएँ कम्पायमान हो जाती हैँ, या यों कहो कि जो अपने रौद्रभाव से सबको पददलित करके सभ्यता का राज्य स्थापित करते हैं, उन योद्धाओं से प्रजाजनों की प्रार्थना है कि आप हमारे अनुकूल होकर हमें सुराज्य प्राप्त कराएँ, जिससे हमें सब प्रकार की अनुकूलता प्राप्त हो और हम अन्नादि धनों से सम्पन्न होकर परमात्मोपासन में प्रवृत्त रहें, हे विजयी योद्धाओ ! आप हम प्रजाओं के प्रतिकूल न वर्तते हुए सदैव हमारा हितचन्तिन करो अर्थात् क्षात्रधर्म को परमात्मा की आज्ञानुकूल वर्तो, जो तुम्हारा परमकर्तव्य है ॥१॥
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