ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
नृ॒वद्द॑स्रा मनो॒युजा॒ रथे॑न पृथु॒पाज॑सा । सचे॑थे अश्विनो॒षस॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठनृ॒ऽवत् । द॒स्रा॒ । म॒नः॒ऽयुजा॑ । रथे॑न । पृ॒थु॒ऽपाज॑सा । सचे॑थे॒ इति॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । उ॒षस॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नृवद्दस्रा मनोयुजा रथेन पृथुपाजसा । सचेथे अश्विनोषसम् ॥
स्वर रहित पद पाठनृऽवत् । दस्रा । मनःऽयुजा । रथेन । पृथुऽपाजसा । सचेथे इति । अश्विना । उषसम् ॥ ८.५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - अब ज्ञानयोगी और कर्मयोगी का उषाकाल सेवी होना कथन करते हैं।
पदार्थ -
(दस्रा, अश्विना) दर्शनीय ज्ञानयोगी और कर्मयोगी अपना राष्ट्र देखने तथा प्रातःकालिक वायुसेवन के लिये (नृवत्) साधारण मनुष्य के समान (पृथुपाजसा) अतिवेगवाले (मनोयुजा, रथेन) इच्छागामी रथ द्वारा (उषसम्) उषाकाल का (सचेथे) सेवन करते हैं ॥२॥
भावार्थ - ज्ञानयोगी तथा कर्मयोगी उषाकाल में जागकर वेदप्रतिपादित सन्ध्या अग्निहोत्रादि कर्मों से निवृत्त हो स्वेच्छाचारी रथपर बैठ कर अपने राष्ट्र का प्रबन्ध देखने तथा उस काल का वायुसेवन करने के लिये जाते हैं। जो पुरुष कर्मयोगी के इस आचरण का सेवन करते हैं, वे भी बुद्धिमान् तथा ऐश्वर्य्यवान् और दीर्घजीवी होकर अनेक प्रकार के सुख अनुभव करते हैं ॥२॥
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