ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
ऋषिः - त्रयरुणत्रसदस्यू
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पर्यू॒ षु प्र ध॑न्व॒ वाज॑सातये॒ परि॑ वृ॒त्राणि॑ स॒क्षणि॑: । द्वि॒षस्त॒रध्या॑ ऋण॒या न॑ ईयसे ॥
स्वर सहित पद पाठपरि । ऊँ॒ इति॑ । सु । प्र । ध॒न्व॒ । वाज॑ऽसातये । परि॑ । वृ॒त्राणि॑ । स॒क्षणिः॑ । द्वि॒षः । त॒रध्यै॑ । ऋ॒ण॒ऽयाः । नः॒ । ई॒य॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणि: । द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । ऊँ इति । सु । प्र । धन्व । वाजऽसातये । परि । वृत्राणि । सक्षणिः । द्विषः । तरध्यै । ऋणऽयाः । नः । ईयसे ॥ ९.११०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 110; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे परमात्मन् ! आप (वाजसातये) ऐश्वर्य्यप्रदान के लिये हमको (परि, प्र, धन्व) भली-भाँति प्राप्त हों (सक्षणिः) सहनशील आप (वृत्राणि) अज्ञानों को नाश करने के लिये हमें प्राप्त हों (ऊँ) और (ऋणयाः) ऋणों को दूर करनेवाले आप (द्विषः) शत्रुओं को (परि, तरध्यै) भले प्रकार नाश करने के लिये (नः) हमको (ईयसे) प्राप्त हों ॥१॥
भावार्थ - जो पुरुष ईश्वरपरायण होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे ही परमात्मा को उपलब्ध करनेवाले कहे जाते हैं, या यों कहो कि उन्हीं को परमात्मप्राप्ति होती है और वे ही अपने ऋणों से मुक्त होते और वे ही शत्रुओं का नाश करके संसार में अभय होकर विचरते हैं। स्मरण रहे कि पूर्वस्थान को त्यागकर स्थानान्तरप्राप्तिरूप प्राप्ति परमात्मा में नहीं घट सकती ॥१॥
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