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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अनानतः पारुच्छेपिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अ॒या रु॒चा हरि॑ण्या पुना॒नो विश्वा॒ द्वेषां॑सि तरति स्व॒युग्व॑भि॒: सूरो॒ न स्व॒युग्व॑भिः । धारा॑ सु॒तस्य॑ रोचते पुना॒नो अ॑रु॒षो हरि॑: । विश्वा॒ यद्रू॒पा प॑रि॒यात्यृक्व॑भिः स॒प्तास्ये॑भि॒ॠक्व॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒या । रु॒चा । हरि॑ण्या । पु॒ना॒नः । विश्वा॑ । द्वेषां॑सि । त॒र॒ति॒ । स्व॒युग्व॑ऽभिः । सूरः॑ । न । स्व॒युग्व॑ऽभिः । धारा॑ । सु॒तस्य॑ । रो॒च॒ते॒ । पु॒ना॒नः । अ॒रु॒षः । हरिः॑ । विश्वा॑ । यत् । रू॒पा । प॒रि॒ऽयाति॑ । ऋक्व॑ऽभिः । स॒प्तआ॑स्येभिः । ऋक्व॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अया रुचा हरिण्या पुनानो विश्वा द्वेषांसि तरति स्वयुग्वभि: सूरो न स्वयुग्वभिः । धारा सुतस्य रोचते पुनानो अरुषो हरि: । विश्वा यद्रूपा परियात्यृक्वभिः सप्तास्येभिॠक्वभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अया । रुचा । हरिण्या । पुनानः । विश्वा । द्वेषांसि । तरति । स्वयुग्वऽभिः । सूरः । न । स्वयुग्वऽभिः । धारा । सुतस्य । रोचते । पुनानः । अरुषः । हरिः । विश्वा । यत् । रूपा । परिऽयाति । ऋक्वऽभिः । सप्तआस्येभिः । ऋक्वऽभिः ॥ ९.१११.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (हरिः) “हरतीति हरिः”=परपक्ष को हरण करनेवाला शूरवीर (अरुषः) उग्र तेजवाला (पुनानः) अपने वीर कर्मों से पवित्र करनेवाला (सुतस्य, धारा) संस्कार की धारा से (रोचते) दीप्तिमान् होता है, (हरिण्या) शुत्रओं को हनन करनेवाली (अया) इस (रुचा) दीप्ति से (पुनानः) पवित्र करता हुआ (स्वयुग्वभिः) अपनी स्वाभाविक शक्तियों द्वारा (विश्वा, द्वेषांसि) सब शत्रुओं को (तरति) हनन करता है, (न) जैसे (सूरः) सूर्य्य (स्वयुग्वभिः) अपनी स्वाभाविक शक्तियों से अन्धकार का नाशक होता है, (यत्) जैसे (सप्तास्येभिः) सात मुखोंवाली (ऋक्वभिः) किरणों से (विश्वा, रूपा) नानारूपों को धारण करता हुआ सूर्य्य (परियाति) प्राप्त होता है, इसी प्रकार (ऋक्वभिः) ज्ञानेन्द्रियों के सप्त छिद्रों से निकले हुए तेज द्वारा शूरवीर परपक्ष को प्राप्त होता है, इसलिये वह सूर्य्य की सप्त किरणों की तुलना करता है ॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में रूपकालंकार से शूरवीर की सूर्य्य के साथ तुलना की गई है अर्थात् जिस प्रकार सूर्य्य अपने तेजोमय प्रभामण्डल से अन्धकार को छिन्न-भिन्न करता है, इसी प्रकार शूरवीर योधा शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके स्वयं स्थिर होता है ॥१॥

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