ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सोम॑: पुना॒नो अ॑र्षति स॒हस्र॑धारो॒ अत्य॑विः । वा॒योरिन्द्र॑स्य निष्कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसोमः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒र्ष॒ति॒ । स॒हस्र॑ऽधारः । अति॑ऽअविः । वा॒योः । इन्द्र॑स्य । निः॒ऽकृ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोम: पुनानो अर्षति सहस्रधारो अत्यविः । वायोरिन्द्रस्य निष्कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसोमः । पुनानः । अर्षति । सहस्रऽधारः । अतिऽअविः । वायोः । इन्द्रस्य । निःऽकृतम् ॥ ९.१३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - अब परमात्मा की यज्ञादिकर्मप्रियता और दानप्रियता को कहते हैं।
पदार्थ -
(सोमः) ‘सुते चराचरं जगदिति सोमः’ सब चराचर जगत् को उत्पन्न करनेवाला वह परमात्मा (पुनानः अर्षति) सबको पवित्र करता हुआ सब जगह व्याप्त हो रहा है और (सहस्रधारः) सहस्त्रों वस्तुओं को धारण करनेवाला है (अत्यविः) अत्यन्त रक्षक है और (वायोः) कर्मशील तथा (इन्द्रस्य) ज्ञानशील विद्वानों का (निष्कृतम्) उद्धार करनेवाला है ॥१॥
भावार्थ - यद्यपि परमात्मा सर्वरक्षक है, वह किसी को द्वेषदृष्टि से नहीं देखता, तथापि वह सत्कर्मी पुरुषों को शुभ फल देता है और असत्कर्मियों को अशुभ, इसी अभिप्राय से उस को कर्मशील पुरुषों का प्यारा वर्णन किया है ॥१॥
इस भाष्य को एडिट करें