ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
परि॑ दि॒व्यानि॒ मर्मृ॑श॒द्विश्वा॑नि सोम॒ पार्थि॑वा । वसू॑नि याह्यस्म॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । दि॒व्यानि॑ । मर्मृ॑शत् । विश्वा॑नि । सो॒म॒ । पार्थि॑वा । वसू॑नि । या॒हि॒ । अ॒स्म॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि दिव्यानि मर्मृशद्विश्वानि सोम पार्थिवा । वसूनि याह्यस्मयुः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । दिव्यानि । मर्मृशत् । विश्वानि । सोम । पार्थिवा । वसूनि । याहि । अस्मऽयुः ॥ ९.१४.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 14; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(सोम) हे परमात्मन् ! (दिव्यानि) दिव्य (पार्थिवानि) पृथिवीलोक के (विश्वानि वसूनि) सम्पूर्ण धनों के (मर्मृशत्) सहित (अस्मयुः) हमारे उद्धार की इच्छा करते हुए (परि याहि) हमको प्राप्त हों ॥८॥
भावार्थ - पार्थिवानि यह कथन यहाँ उपलक्षणमात्र है अर्थात् पृथिवीलोक अथवा द्युलोक के जितने ऐश्वर्य हैं, उनको परमात्मा हमें प्रदान करे। इस सूक्त में परमात्मा के सर्वाश्रयत्व और सर्वदातृत्वादि अनेक प्रकार के गुणों का वर्णन किया है ॥८॥४॥ यह चौदहवाँ सूक्त और चौथा वर्ग पूरा हुआ ॥
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