ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
प्र धारा॑ अस्य शु॒ष्मिणो॒ वृथा॑ प॒वित्रे॑ अक्षरन् । पु॒ना॒नो वाच॑मिष्यति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । धाराः॑ । अ॒स्य॒ । शु॒ष्मिणः॑ । वृथा॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒क्ष॒र॒न् । पु॒ना॒नः । वाच॑म् । इ॒ष्य॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र धारा अस्य शुष्मिणो वृथा पवित्रे अक्षरन् । पुनानो वाचमिष्यति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । धाराः । अस्य । शुष्मिणः । वृथा । पवित्रे । अक्षरन् । पुनानः । वाचम् । इष्यति ॥ ९.३०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(प्र पुनानः) अपने आपको पवित्र करता हुआ जो पुरुष (वाचम् इष्यति) वाग्रूप सरस्वती की इच्छा करता है (अस्य शुष्मिणः) उस बलिष्ठ के लिये (पवित्रे) पात्र में (वृथा) व्यर्थ ही इस सोमरस की (धाराः) धाराएँ (अक्षरन्) गिरती हैं ॥१॥
भावार्थ - जितने प्रकार के संसार में बल पाये जाते हैं, उन सबमें से वाणी का बल सबसे बड़ा है, इस अभिप्राय से परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! यदि तुम सर्वोपरि बल को उपलब्ध करना चाहते हो, तो वाणीरूप बल की इच्छा करो। जो पुरुष वाणीरूप बल को उपलब्ध करते हैं, उनके लिये सोमादि रसों से बल लेने की आवश्यकता नहीं ॥१॥
इस भाष्य को एडिट करें