ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रभुवसुः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अस॑र्जि॒ रथ्यो॑ यथा प॒वित्रे॑ च॒म्वो॑: सु॒तः । कार्ष्म॑न्वा॒जी न्य॑क्रमीत् ॥
स्वर सहित पद पाठअस॑र्जि । रथ्यः॑ । य॒था॒ । प॒वित्रे॑ । च॒म्वोः॑ । सु॒तः । कार्ष्म॑न् । वा॒जी । नि । अ॒क्र॒मी॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असर्जि रथ्यो यथा पवित्रे चम्वो: सुतः । कार्ष्मन्वाजी न्यक्रमीत् ॥
स्वर रहित पद पाठअसर्जि । रथ्यः । यथा । पवित्रे । चम्वोः । सुतः । कार्ष्मन् । वाजी । नि । अक्रमीत् ॥ ९.३६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - अब परमात्मा को रै और प्राणरूप शक्ति के आधाररूप से वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(रथ्यः) सब गतिशील पदार्थों को गति देनेवाला वह परमात्मा (चम्वोः सुतः) रै और प्राणरूप दोनों शक्तियों में प्रसिद्ध है और उसने (यथा असर्जि) पूर्ववत् सब संसार को पैदा किया और (वाजी) श्रेष्ठ बलवाला वह परमात्मा (पवित्रे कार्ष्मन् न्यक्रमीत्) भजन द्वारा उसको आकर्षण करनेवाले भक्तों के पवित्र हृदय में आकर विराजमान होता है ॥१॥
भावार्थ - यद्यपि परमात्मा अपनी व्यापकता से प्रत्येक पुरुष के हृदय में विद्यमान है, तथापि जो पुरुष अपने अन्तःकरण को निर्मल रखते हैं, उनके हृदय में उसकी स्फुट प्रतीति होती है, इसी अभिप्राय से कथन किया है कि वह भक्तों के हृदय में विराजमान है ॥१॥
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