ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 10
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
वन॒स्पतिं॑ पवमान॒ मध्वा॒ सम॑ङ्ग्धि॒ धार॑या । स॒हस्र॑वल्शं॒ हरि॑तं॒ भ्राज॑मानं हिर॒ण्यय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवन॒स्पति॑म् । प॒व॒मा॒न॒ । मध्वा॑ । सम् । अ॒ङ्ग्धि॒ । धार॑या । स॒हस्र॑ऽवल्शम् । हरि॑तम् । भ्राज॑मानम् । हि॒र॒ण्यय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पतिं पवमान मध्वा समङ्ग्धि धारया । सहस्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम् ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पतिम् । पवमान । मध्वा । सम् । अङ्ग्धि । धारया । सहस्रऽवल्शम् । हरितम् । भ्राजमानम् । हिरण्ययम् ॥ ९.५.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
विषय - अब उक्त यज्ञ में उपासनीय परमात्मा के गुण कथन हैं।
पदार्थ -
(पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! आप (मध्वा धारया) सुवृष्टि से (वनस्पतिम्) इस वनस्पति को (समङ्ग्धि) सींचें जो वनस्पति (सहस्रवल्शम्) अनन्त प्रकार की है (हरितम्) हरे रंगवाली है (भ्राजमानम्) नाना प्रकार से देदीप्यमान है और (हिरण्ययम्) सुन्दर ज्योतिवाली है ॥१०॥
भावार्थ - परमात्मा से प्रार्थना है कि वह चराचर ब्रह्माण्डगत वनस्पति का सिञ्चन करे। इस स्वभावोक्ति अलङ्कार द्वारा परमात्मा के वृष्टिकर्तृत्वभाव का निरूपण किया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी वेदमन्त्रों में “कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः” अथ ३।६। २७।५। इत्यादि स्थलों में वनस्पति को परमात्मा के ग्रीवास्थानी वर्णन किया है। इसी प्रकार वनस्पति को विराट्स्वरूप की शोभा वर्णन करते हुए ईश्वर से स्वभावसिद्ध प्रार्थना है ॥१०॥
इस भाष्य को एडिट करें