ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 85/ मन्त्र 1
इन्द्रा॑य सोम॒ सुषु॑त॒: परि॑ स्र॒वापामी॑वा भवतु॒ रक्ष॑सा स॒ह । मा ते॒ रस॑स्य मत्सत द्वया॒विनो॒ द्रवि॑णस्वन्त इ॒ह स॒न्त्विन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । सो॒म॒ । सुऽसु॑तः । परि॑ । स्र॒व॒ । अप॑ । अमी॑वा । भ॒व॒तु॒ । रक्ष॑सा । स॒ह । मा । ते॒ । रस॑स्य । म॒त्स॒त॒ । द्व॒या॒विनः॑ । द्रवि॑णस्वन्तः । इ॒ह । स॒न्तु॒ । इन्द॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय सोम सुषुत: परि स्रवापामीवा भवतु रक्षसा सह । मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । सोम । सुऽसुतः । परि । स्रव । अप । अमीवा । भवतु । रक्षसा । सह । मा । ते । रसस्य । मत्सत । द्वयाविनः । द्रविणस्वन्तः । इह । सन्तु । इन्दवः ॥ ९.८५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 85; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(इन्दवः) कर्म्मयोगी इस संसार में (द्रविणस्वन्तः) ऐश्वर्यवाले होकर (इह) इस यज्ञ में (सन्तु) विराजमान हों और (द्वयाविनः) झूठ-सच का विवेक न करनेवाले मायावी पुरुष (ते रसस्य) तुम्हारे आनन्द का (मा, मत्सत) मत लाभ उठावें। (सोम) हे जगत्कर्त्ता परमात्मन् ! (इन्द्राय) कर्म्मयोगी के लिये (सुषुतः) साक्षात्कार को प्राप्त हुए आप (परिस्रव) ज्ञान द्वारा उसके हृदय में आकर विराजमान होवो और (रक्षसा, सह) राक्षसों के द्वारा किये हुए कर्म्मयोगियों के रोगादिक (अप, भवन्तु) दूर हों ॥१॥
भावार्थ - जो लोग सत्यासत्य में विवेक नहीं कर सकते और असत्य को त्यागकर दृढ़तापूर्वक सत्य का ग्रहण नहीं कर सकते, वे सदैव सत्यामृत के सागर में गोते खाते रहते हैं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सत्यासत्य का विवेक करके सत्यग्राही बने ॥१॥
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