ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
प्र तु द्र॑व॒ परि॒ कोशं॒ नि षी॑द॒ नृभि॑: पुना॒नो अ॒भि वाज॑मर्ष । अश्वं॒ न त्वा॑ वा॒जिनं॑ म॒र्जय॒न्तोऽच्छा॑ ब॒र्ही र॑श॒नाभि॑र्नयन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तु । द्र॒व॒ । परि॑ । कोश॑म् । नि । सी॒द॒ । नृऽभिः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒भि । वाज॑म् । अ॒र्ष॒ । अश्व॑म् । न । त्वा॒ । वा॒जिन॑म् । म॒र्जय॑न्तः । अच्छ॑ । ब॒र्हिः । र॒श॒नाभिः॑ । न॒य॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तु द्रव परि कोशं नि षीद नृभि: पुनानो अभि वाजमर्ष । अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तोऽच्छा बर्ही रशनाभिर्नयन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । तु । द्रव । परि । कोशम् । नि । सीद । नृऽभिः । पुनानः । अभि । वाजम् । अर्ष । अश्वम् । न । त्वा । वाजिनम् । मर्जयन्तः । अच्छ । बर्हिः । रशनाभिः । नयन्ति ॥ ९.८७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में ऋषिविप्रादि नामों से परमात्मा का ही वर्णन है।
पदार्थ -
हे परमात्मन् ! (तु) शीघ्र (प्र द्रव) गमन करो और गमन करके (कोशं) कर्म्मयोगी के अन्तःकरण को (परिनिषीद) ग्रहण करो (नृभिः) और मनुष्यों से (पुनानः) पूज्यमान आप (वाजं) बल की (अभ्यर्ष) वृष्टि करो (अश्वं) बिजली के (न) समान (त्वा वाजिनं) बलस्वरूप आपकी (मर्जयन्तः) उपासना करते हुए उपासक लोग (अच्छ बर्हिः) यज्ञ के प्रति आपकी (रशनाभिः) उपासना द्वारा (नयन्ति) आपका साक्षात्कार करते हैं ॥१॥
भावार्थ - यहाँ (वाजी) नाम बलवान् का है, बलस्वरूप परमात्मा से यहाँ हृदय की शुद्धि की प्रार्थना की गई है। जो लोग ‘वाजी’ के अर्थ घोड़ा करके वेदों के अर्थों को उच्चभाव से गिराकर निन्दित बना देते हैं, वे अत्यन्त भूल करते हैं। ‘वाज’ शब्द के अर्थ अन्न, ऐश्वर्य्य और बल ही हैं, इसलिये “ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वम्” इत्यादि मन्त्रों में ऐश्वर्य के परिपक्व करने का अर्थ है, घोड़ा मारने का नहीं ॥१॥
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