ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 93/ मन्त्र 1
सा॒क॒मुक्षो॑ मर्जयन्त॒ स्वसा॑रो॒ दश॒ धीर॑स्य धी॒तयो॒ धनु॑त्रीः । हरि॒: पर्य॑द्रव॒ज्जाः सूर्य॑स्य॒ द्रोणं॑ ननक्षे॒ अत्यो॒ न वा॒जी ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒क॒म्ऽउक्षः॑ । म॒र्ज॒य॒न्त॒ । स्वसा॑रः । दश॑ । धीर॑स्य । धी॒तयः॑ । धनु॑त्रीः । हरिः॑ । परि॑ । अ॒द्र॒व॒त् । जाः । सूर्य॑स्य । द्रोण॑म् । न॒न॒क्षे॒ । अत्यः॑ । न । वा॒जी ॥
स्वर रहित मन्त्र
साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः । हरि: पर्यद्रवज्जाः सूर्यस्य द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी ॥
स्वर रहित पद पाठसाकम्ऽउक्षः । मर्जयन्त । स्वसारः । दश । धीरस्य । धीतयः । धनुत्रीः । हरिः । परि । अद्रवत् । जाः । सूर्यस्य । द्रोणम् । ननक्षे । अत्यः । न । वाजी ॥ ९.९३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 93; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(अत्यो वाजी) बलवाले विद्युदादि पदार्थ (न) जैसे (ननक्षे) व्यापक हो जाते हैं, इसी प्रकार (सूर्य्यस्य, द्रोणं) सूर्य्यमण्डल का जो प्रभाकलश है तथा (जाः) उसकी जो दिशा उपदिशायें हैं, उनमें (हरिः) हरणशील परमात्मा (पर्य्यद्रवत्) सर्वत्र परिपूर्ण है। उस पूर्ण परमात्मा को (साकमुक्षः) एक समय में (मर्जयन्त) विषय करती हुई (स्वसारः) स्वयं सरणशील (दश धीः) १० प्रकार की इन्द्रियवृत्तियें (धीतयः) जो ध्यान द्वारा परमात्मा को विषय करनेवाली हैं और (धनुत्रीः) और मन की प्रेरक हैं, वे परमात्मा के स्वरूप को विषय करती हैं ॥१॥
भावार्थ - योगी पुरुष जब अपने मन का निरोध करता है, तो उसकी इन्द्रियरूप वृत्तियें परमात्मा का साक्षात्कार करती हैं ॥१॥
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