ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
कनि॑क्रन्ति॒ हरि॒रा सृ॒ज्यमा॑न॒: सीद॒न्वन॑स्य ज॒ठर॑ऋ पुना॒नः । नृभि॑र्य॒तः कृ॑णुते नि॒र्णिजं॒ गा अतो॑ म॒तीर्ज॑नयत स्व॒धाभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठकनि॑क्रन्ति । हरिः॑ । आ । सृ॒ज्यमा॑नः । सीद॑न् । वन॑स्य । ज॒ठरे॑ । पु॒ना॒नः । नृऽभिः॑ । य॒तः । कृ॒णु॒ते॒ । निः॒ऽनिज॑म् । गाः । अतः॑ । म॒तीः । ज॒न॒य॒त॒ । स्व॒धाभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कनिक्रन्ति हरिरा सृज्यमान: सीदन्वनस्य जठरऋ पुनानः । नृभिर्यतः कृणुते निर्णिजं गा अतो मतीर्जनयत स्वधाभि: ॥
स्वर रहित पद पाठकनिक्रन्ति । हरिः । आ । सृज्यमानः । सीदन् । वनस्य । जठरे । पुनानः । नृऽभिः । यतः । कृणुते । निःऽनिजम् । गाः । अतः । मतीः । जनयत । स्वधाभिः ॥ ९.९५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(हरिः) हरणशील शक्तियोंवाला परमात्मा (सृज्यमानः) साक्षात्कार को प्राप्त होता है। तब (वनस्य) भक्त के (जठरे) अन्तःकरण में (सीदन्) ठहरता हुआ और (पुनानः) उसको पवित्र करता हुआ विराजमान होता है। (यतः) जिसलिये (नृभिः) मनुष्यों द्वारा (निर्णिजं कृणुते) साक्षात्कार किया जाता है, तब (गाः) इन्द्रियों को शुद्ध करके (मतिर्जनयत) अच्छे प्रकार की बुद्धि उत्पन्न करता है (स्वधाभिः) स्वशक्तियों के द्वारा और (कनिक्रन्ति) पुनः शब्दायमान के समान साक्षात्कार को प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थ - वास्तव में परमात्मा सर्वव्यापक है। उसके लिये विराजमान होना और विराजमान न होना कथन नहीं किया जा सकता। विराजमान होना यहाँ साक्षात्कार के अभिप्राय से कथन किया गया है ॥१॥
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