यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 16
ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
3
पृ॒थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वदाभ॑रा॒ग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वदच्छे॑मो॒ऽग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वद्भ॑रिष्यामः॥१६॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ। भ॒र॒। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। अच्छ॑। इ॒मः॒। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। भ॒रि॒ष्या॒मः॒ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिव्याः सधस्थादग्निम्पुरीष्यमङ्गिरस्वदाभराग्निम्पुरीष्यमङ्गिरस्वदच्छेमोग्निम्पुरीष्यमङ्गिरस्वद्भरिष्यामः ॥
स्वर रहित पद पाठ
पृथिव्याः। सधस्थादिति सधऽस्थात्। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। आ। भर। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। अच्छ। इमः। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। भरिष्यामः॥१६॥
विषय - अग्नि = अग्निहोत्र की ओर
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र में ‘पूष्णा सयुजा सह’ इन शब्दों में सदा प्रभु के उपासन का प्रतिपादन था। प्रस्तुत मन्त्र में ‘अग्निहोत्र’ का प्रतिपादन करते हैं। ‘शुनःशेप’ के लिए—जीवन को सुखी बनाने की इच्छावाले के लिए—‘सन्ध्या व अग्निहोत्र’ दोनों ही आवश्यक हैं। २. प्रभु कहते हैं कि ( पृथिव्याः सधस्थात् ) = पृथिवी के इस सधस्थ से—मिलकर बैठने के स्थान से ( पुरीष्यम् ) = [ पुरीषम् = उदकं तत्र साधुः ] वृष्टिरूप जल को देने में उत्तम अथवा [ पृणाति सुखं, तत्र साधुः ] नीरोगता के द्वारा सुख देनवालों में उत्तम ( अग्निम् ) = इस यज्ञ की अग्नि को ( आभर ) = धारण कर। घर का सबसे पहला कमरा ( ‘हविर्धानम्’ ) = अग्निहोत्र के लिए ही तो बनाना है। उस कमरे में अग्निहोत्र के समय घर के सभी व्यक्ति मिलकर बैठें। यह स्थान ‘सधस्थ’ समझा जाए।
३. प्रभु की इस वाणी को सुनकर ‘शुनःशेप’ कहता है कि हम ( पुरीष्यम् ) = सुखों का पूरण करनेवाली, वृष्टिजल की कारणभूत ( अग्निं अच्छ ) = अग्नि की ओर ( इमः ) = आते हैं, उसी प्रकार ‘अङ्गिरस्वत्’ जैसेकि अङ्गिरस् लोग जाते हैं। इस अग्निहोत्र को नियम से करनेवाले लोग नीरोग और अतएव अङ्गिरस् बनते हैं। इनके अङ्ग सदा जीवन-रस से परिपूर्ण बने रहते हैं।
४. शुनःशेप का निश्चय है कि हम ( अङ्गिरस्वत् ) = इन अङ्गिरस् लोगों की भाँति ( पुरीष्यं अग्निम् ) = सुखों की पूरक इस अग्नि को ( भरिष्यामः ) = भविष्य में भी सदा अग्निकुण्ड में धारण करनेवाले बनेंगे।
५. ‘सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता’—अ० १९।५५।३ ‘प्रातःप्रातः गृर्हपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता’—अ० १९।५५।४। अर्थात् प्रत्येक सायंकाल प्रबुद्ध किया हुआ हमारे घरों का रक्षक यह अग्नि प्रातः तक शुभ चित्त का देनेवाला होता है और प्रत्येक प्रातःकाल प्रबुद्ध किया हुआ यह गृहपति अग्नि सायं तक शुभ चित्तवृत्ति का देनेवाला होता है। एवं, यह अग्निहोत्र सचमुच हमारे जीवन को सुखी बनाता है और हम शुनःशेप बनते हैं।
भावार्थ -
भावार्थ — हम अग्निहोत्र को सदा अपने घरों का पति बनाएँगे, जिससे हमारी मनोवृत्तियाँ शुभ बनी रहें और हम सुखी जीवनवाले हों।
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