यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 73
ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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यद॑ग्ने॒ कानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। सर्वं॒ तद॑स्तु ते घृ॒तं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य॥७३॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अ॒ग्ने॒। कानि॑। कानि॑। चि॒त्। आ। ते॒। दारु॑णि। द॒ध्मसि॑। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। ते॒। घृ॒तम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥७३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने कानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि । सर्वन्तदस्तु ते घृतन्तज्जुषस्व यविष्ठ्य ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। अग्ने। कानि। कानि। चित्। आ। ते। दारुणि। दध्मसि। सर्वम्। तत्। अस्तु। ते। घृतम्। तत्। जुषस्व। यविष्ठ्य॥७३॥
विषय - ये ही तिल-फूल
पदार्थ -
जिस समय कन्या-पक्षवाले अपनी कन्या को योग्य वर के साथ परिणीत करते हैं तब उसके साथ ‘सुदाय’ [ दहेज ] के रूप में भी कुछ-न-कुछ देते ही हैं। उस धन को देते हुए वे कहते हैं कि १. हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील युवक! ( यत् ) = जो ( कानि-कानि चित् ) = जिन किन्हीं भी ( दारूणि ) = लकड़ियों को ( ते ) = तेरे लिए ( आदध्मसि ) = धारण करते हैं ( तत् सर्वम् ) = वह सब ( ते ) = तेरे लिए ( घृतं अस्तु ) = घृत के तुल्य हो। इसी तिल-फूल को, ‘पत्र-पुष्प’ को तू बहुत समझना। २. ( तत् जुषस्व ) = उसी तुच्छ भेंट को तू प्रीतिपूर्वक सेवन करना। हमारी दी हुई यह मामूली भेंट भी आपसे आदर दी जाए। ( यविष्ठ्य ) = आप तो गुणों के ग्रहण व अवगुणों के दूर करनेवाले हैं। गुणों में प्रीति रखनेवाले आप इस भौतिक भेंट को बहुत महत्त्व न देंगे।
भावार्थ -
भावार्थ — वर को चाहिए कि वधू के गुणों को महत्त्व दे, न कि वधू-गृह की सम्पत्ति को। ७३, ७४वें मन्त्रों का ऋषि ‘जमदङ्गिन’ है। ‘चक्षुर्वै जमदङ्गिनऋर्षिः, यदनेन जगत् पश्यति अथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदङ्गिनऋर्षिः’—श० १।२।१।३ के अनुसार जमदङ्गिन ‘चक्षुः’ है। संसार को ठीक रूप में देखता है और विचार करता है। जो ठीक रूप में नहीं देखता वही धन को गुणों की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है।
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