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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 33
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अक्र॑न्दद॒ग्नि स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः क्षामा॒ रेरि॑हद् वी॒रुधः॑ सम॒ञ्जन्। सद्यो॒ ज॑ज्ञा॒नो वि हीमि॒द्धोऽअख्य॒दा रोद॑सी भा॒नुना॑ भात्य॒न्तः॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्र॑न्दत्। अ॒ग्निः। स्त॒नय॑न्नि॒वेति॑ स्त॒नय॑न्ऽइव। द्यौः। क्षामा॑। रेरि॑हत्। वी॒रुधः॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। स॒द्यः ज॒ज्ञा॒नः। वि। हि। ई॒म्। इ॒द्धः। अख्य॑त्। आ। रोद॑सीऽइति॒ रोद॑सी। भा॒नुना॑। भा॒ति॒। अ॒न्तरित्य॒न्तः ॥३३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौः क्षामा रेरिहद्वीरुधः समञ्जन् । सद्यो जज्ञानो वि हीमिद्धोऽअख्यदा रोदसी भानुना भात्यन्तः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अक्रन्दत्। अग्निः। स्तनयन्निवेति स्तनयन्ऽइव। द्यौः। क्षामा। रेरिहत्। वीरुधः। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। सद्यः जज्ञानः। वि। हि। ईम्। इद्धः। अख्यत्। आ। रोदसीऽइति रोदसी। भानुना। भाति। अन्तरित्यन्तः॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 33
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    पदार्थ -

    १. ( अग्निः ) = सब उन्नतियों के साधक, प्रकाश देनेवाले प्रभु ( स्तनयन् इव द्यौः ) = गर्जते हुए मेघ के समान ( अक्रन्दत् ) = उच्च स्वर से वेदज्ञान का उच्चारण कर रहे हैं। २. जब हम उनकी वाणी को सुनते हैं तो ( क्षामा ) = हमारे इस शरीर को [ पृथिवी शरीरम् ] ( रेरिहत् ) = वे अत्यन्त आनन्दमय बना देते हैं। ३. ( वीरुधः ) = विशिष्ट रोहणों को व विविध शक्तियों के विकासों को वे ( समञ्जन् ) = हममें व्यक्त करते हैं, अर्थात् प्रभु की वाणी को सुनकर तदनुसार आचरण करने पर हमारी शक्तियों का विकास होता है और हमारा स्वस्थ व सुन्दर जीवन आनन्दमय बन जाता है। ४. ( जज्ञानः ) = प्रकट होते हुए वे प्रभु ( इद्धः ) = हृदयाकाश में दीप्त हुए ( हि ईम् ) = निश्चय से ( सद्यः ) = शीघ्र ही ( विअख्यत् ) = विशेषरूप से हमारे जीवन को प्रकाशमय बना देते हैं। ५. वे प्रभु ( रोदसी अन्तः ) = इस द्युलोक व पृथिवीलोक के अन्दर, अर्थात् सम्पूर्ण आकाश में ( भानुना ) = दीप्ति से ( आभाति ) = समन्तात् चमक रहे हैं, उसी के प्रकाश से सभी प्रकाशित हो रहे हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम उस प्रभु की वाणी को सुनें, हममें विविध शक्तियों का विकास होगा और हमारा जीवन चमक उठेगा।

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