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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 87
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्यो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सा॒कं य॑क्ष्म॒ प्रप॑त॒ चाषे॑ण किकिदी॒विना॑। सा॒कं वात॑स्य॒ ध्राज्या॑ सा॒कं न॑श्य नि॒हाक॑या॥८७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒कम्। य॒क्ष्म॒। प्र। प॒त॒। चाषे॑ण। कि॒कि॒दी॒विना॑। सा॒कम्। वात॑स्य। ध्राज्या॑। सा॒कम्। न॒श्य॒। नि॒हाक॒येति॑ नि॒ऽहाक॑या ॥८७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साकँयक्ष्म प्रपत चाषेण किकिदीविना । साकँवातस्य ध्राज्या साकन्नश्य निहाकया ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    साकम्। यक्ष्म। प्र। पत। चाषेण। किकिदीविना। साकम्। वातस्य। ध्राज्या। साकम्। नश्य। निहाकयेति निऽहाकया॥८७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 87
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    पदार्थ -
    १. वैद्य रोग को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे (यक्ष्म) = रोग ! तू (साकं प्रपत) = साथ-साथ भाग जा। [क] किसके साथ? (चाषेण) = [ चषति व्याकुलं कृत्वा हन्ति = पित्तरोग:] उस पित्त विकार के साथ जो पीछा ही नहीं छोड़ता अपितु व्याकुल करके मार ही डालता है, [चष् to chase, वधे] । [ख] फिर किसके साथ? (किकिदीविना) = [कफ़ा-वरुद्धकण्ठो, तद् ध्वनेरनुकरणार्थ: किकिशब्द:, किकिना दीव्यतीति] कफ़ से अवरुद्ध कण्ठ से उठनेवाले 'किकि' शब्द के साथ रोगी को जीतने की कामना करनेवाले [दिव् विजिगीषा] श्लेष्मरोग के साथ तू यहाँ से भाग जा। [ग] और फिर (वातस्य ध्राज्या साकं) [प्रपत] = वात की विकृत गति, अर्थात् वातविकार के साथ तू यहाँ से नष्ट हो जा। २. और हे (यक्ष्म) = रोग ! तू (निहाकया) [ यया कया रुजा हा निहतोऽस्मि इति शब्दं करोति अथवा निहन्ति कायम् इति वा] = जिस पीड़ा से 'अरे मैं मरा' इस प्रकार शब्द करता है या जो पीड़ा शरीर को समाप्तप्राय सा ही कर देती है, उस कृच्छ्रापत्ति के (साकम्) = साथ (नश्य) = तू इस शरीर से अदृश्य हो जा, भाग जा। ३. एवं अर्थ यह हुआ कि यह (यक्ष्म) = राजरोग वात-पित्त-कफ़-विकारों के साथ तथा तीव्र पीड़ासहित नष्ट हो जाए। राजरोग जाए और ये विकार व पीड़ाएँ भी जाएँ। मन्त्रार्थ इस रूप में भी हो सकता है [१] हे (यक्ष्म) = रोग ! तू (चाषेण) = चाषपक्षी के साथ (किकिदीविना) = 'किकि' इस अव्यक्त ध्वनि करनेवाले पक्षी के साथ उड़ जा, तू उन्हीं के साथ रह । [२] तू (वातस्य ध्राज्या साकं नश्य) = वायु की गति के साथ भाग जा। [३] (निहाकया साकं नश्य) = [हा कष्टं निर्गतोऽहं कया ओषध्या] 'अरे मैं किस ओषधि से मार भगाया गया' इस शब्द के साथ फिर न लौटने के लिए चला जा । यह अर्थ भी हो सकता है कि [१] (किकिदीविना) = [किं किं ज्ञानं दीव्यति ददाति ] किस-किस ज्ञान को देनेवाले, अर्थात् उत्तमोत्तम अद्भुत ज्ञानों के देनेवाले (चाषेण) = भक्षणीय आहार के साथ, अर्थात् इसका प्रयोग होते ही तू नष्ट हो जा। [२] (वातस्य धाज्या) = वायु की तीव्र गति से - प्राणायाम में तीव्रता से बाहर फेंके गये वायु के साथ तू अदृश्य हो जा। [३] और (निहाकया) = [ नितरां हाकया त्यागेन] विषयों के नितरां त्याग के साथ तू भी नष्ट हो जा। [४] यह अर्थ आचार्य दयानन्द की शैली पर किया गया है। भाव यह है कि रोग के दूरीकरण के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। [क] ज्ञानवर्धक सात्त्विक आहार । [ख] प्राणायाम व दीर्घश्वास [deep breathing] तथा [ग] विषयत्याग।

    भावार्थ - भावार्थ - १. हमारे रोग वात-पित्त-कफ़विकारों व पीड़ाओं के साथ दूर हो जाएँ। २. ये चाष के साथ आकाश में उड़ जाएँ। आँधी के साथ दूर देश में पहुँच जाएँ 'अरे मारे गये' ऐसा चिल्लाकर भाग चलें । ३. सात्त्विक आहार, दीर्घश्वास, व विषय-त्याग हमें रोगों से बचानेवाले हों।

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