Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 30
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    0

    अ॒पां गम्भ॑न्त्सीद॒ मा त्वा॒ सूर्य्यो॒ऽभिता॑प्सी॒न्माग्निर्वै॑श्वान॒रः। अच्छि॑न्नपत्राः प्र॒जाऽ अ॑नु॒वीक्ष॒स्वानु॑ त्वा दि॒व्या वृष्टिः॑ सचताम्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। गम्भ॑न्। सी॒द॒। मा। त्वा॒। सूर्य्यः॑। अ॒भि। ता॒प्सी॒त्। मा। अ॒ग्निः। वै॒श्वा॒न॒रः। अच्छि॑न्नपत्रा॒ इत्यच्छि॑न्नऽपत्राः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒नु॒वीक्ष॒स्वेत्य॑नु॒ऽवीक्ष॑स्व। अनु॑। त्वा॒। दि॒व्या। वृष्टिः॑। स॒च॒ता॒म् ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाङ्गम्भन्त्सीद मा त्वा सूर्याभि ताप्सीन्माग्निर्वैश्वानरः । अच्छिन्नपत्राः प्रजा अनुवीक्षस्वानु त्वा दिव्या वृष्टिः सचताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। गम्भन्। सीद। मा। त्वा। सूर्य्यः। अभि। ताप्सीत्। मा। अग्निः। वैश्वानरः। अच्िछन्नपत्रा इत्यच्िछन्नऽपत्राः। प्रजा इति प्रऽजाः। अनुवीक्षस्वेत्यनुऽवीक्षस्व। अनु। त्वा। दिव्या। वृष्टिः। सचताम्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. (अपाम्) कर्मों की (गम्भन्) = [गम्भीरे] गम्भीरता में (सीद) = तू स्थित हो, अर्थात् सदा गम्भीरता से कर्मों में व्यापृत रह । गम्भीरता का अभिप्राय प्रसन्नता का अभाव नहीं है। इसका तात्पर्य है तेरे जीवन में उथलापन व विलास न आ जाए। २. गम्भीरता से कर्मों में लगे रहने पर (सूर्य:) = सूर्य (त्वा) = तुझे (मा अभिताप्सीत्) = समाप्त करनेवाला न हो। वस्तुतः क्रियाशून्य- आराम से लेटनेवाले को ही सर्दी-गर्मी लगा करती है। कार्यव्यापृत मनुष्य इनसे इतना व्याकुल नहीं होता । ३. (वैश्वानरः अग्निः) = देह में स्थित जाठराग्नि भी तुझे (मा) = सन्तप्त न करे। कर्म में लगे हुए व्यक्ति का अमाशय भी स्वस्थ रहता है। पाचनशक्ति की कमी आलसियों को ही सताती है। ४. कार्यव्यापृतता से पूर्ण स्वस्थ बनकर तू (अच्छिन्नपत्रा:) = [अच्छिनानि पत्राणि अक्षयं वा यासाम्] अखण्डित अवयवोंवाली (प्रजाः) = सन्तानों को अनुवीक्षस्व - निरन्तर अपने पीछे आता हुआ देख, अर्थात् यह कर्मव्यापृति माता-पिता को पूर्ण स्वस्थ बनाकर अति सुन्दर सर्वांग सन्तानों को प्राप्त कराती है। ५. (अनु) = पीछे, अर्थात् अन्त में (त्वा) = तुझे (दिव्या वृष्टिः) = धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली आनन्द की वृष्टि (सचताम्) = सेवन करे। इस कार्यव्यापृति से तू चित्त की एकाग्रता के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोधरूपी योग को प्राप्त होनेवाला हो और यह कर्म - कुशलतारूपी योग का अभ्यास तुझे अद्भुत आनन्द देनेवाला हो।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रतिक्षण प्रसन्नता से स्वधर्म में लगे रहने से, आलस्य को त्यागकर मूर्त्तिमान् कर्म बन जाने से मनुष्य १. सर्दी-गर्मी को सहन कर पाता है। २. उसकी पाचनशक्ति ठीक बनी रहती है। ३. उसकी सन्तानें स्वस्थ, सर्वाङ्ग होती हैं । ४. उसे एक अद्भुत आनन्द प्राप्त होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top