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  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 18
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - छन्दांसि देवताः छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
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    मा छन्दः॑ प्र॒मा छन्दः॑ प्रति॒मा छन्दो॑ऽ अस्री॒वय॒श्छन्दः॑ प॒ङ्क्तिश्छन्द॑ऽ उ॒ष्णिक् छन्दो॑ बृह॒ती छन्दो॑ऽनु॒ष्टुप् छन्दो॑ वि॒राट् छन्दो॑ गाय॒त्री छन्द॑स्त्रि॒ष्टुप् छन्दो॒ जग॑ती॒ छन्दः॑॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। छन्दः॑। प्र॒मेति॑ प्र॒ऽमा। छन्दः॑। प्र॒ति॒मेति॑ प्रति॒ऽमा। छन्दः॑। अ॒स्री॒वयः॑। छन्दः॑। प॒ङ्क्तिः। छन्दः॑। उ॒ष्णिक्। छन्दः॑। बृ॒ह॒ती। छन्दः॑। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। छन्दः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। छन्दः॑। गा॒य॒त्री। छन्दः॑। त्रि॒ष्टुप्। त्रि॒स्तुबिति॑ त्रि॒ऽस्तुप्। छन्दः॑। जग॑ती। छन्दः॑ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा च्छन्दः प्रमा च्छन्दः प्रतिमा च्छन्दोऽअम्रीवयश्छन्दः पङ्क्तिश्छन्दऽउष्णिक्छन्दो बृहती छन्दोनुष्टुप्छन्दो विराट्छन्दो गायत्री छन्दस्त्रिष्टुप्छन्दो जगती च्छन्दः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। छन्दः। प्रमेति प्रऽमा। छन्दः। प्रतिमेति प्रतिऽमा। छन्दः। अस्रीवयः। छन्दः। पङ्क्तिः। छन्दः। उष्णिक्। छन्दः। बृहती। छन्दः। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। छन्दः। विराडिति विऽराट्। छन्दः। गायत्री। छन्दः। त्रिष्टुप्। त्रिस्तुबिति त्रिऽस्तुप्। छन्दः। जगती। छन्दः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    १. प्रभु पति - पत्नी से कहते हैं कि तुम्हारी पहली (छन्दः) = इच्छा (मा) = लक्ष्मी की हो। तुम धन को धर्म्य मार्गों से कमाने का ध्यान करो। धन के बिना गृहस्थ व संसार नहीं चल सकता। तुम्हारे ध्येय 'मा+धव' हों, लक्ष्मीपति विष्णु हों, परन्तु धन को सुपथा कमाने का प्रयत्न करो। २. (प्रमा छन्दः) = ज्ञान-प्राप्ति की तुम्हारी कामना हो। कहीं धनोपासना में फँसकर 'लक्ष्मी के वाहन उल्लू' ही न बन जाना। केवल लक्ष्मी की उपासना उल्लू बनना ही है, अतः धन के साथ ज्ञान को जोड़ने का प्रयत्न करना। ३. इस प्रकार (प्रतिमा छन्दः) = प्रभु की ही प्रतिमा [image] तदनुरूप ही बनने की इच्छा करना। 'धन व ज्ञान' ये हमें प्रभु के समीप पहुँचा देते हैं। ४. इन बातों के लिए (अस्त्रीवयः छन्दः) = [अस्यति क्षिपति, वेञ् तन्तु सन्ताने] उस अन्न की कामना करना जो सब बुराइयों को, रोगों व मानस विकारों को दूर फेंकता है और जीवनतन्तु का सन्तान करते हुए दीर्घ जीवन का कारण बनता है । ५. इस उत्तम अन्न के प्रयोग से (पङ्किः छन्दः) - पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों को बढ़ाने की तुम्हारी कामना हो। इन सब पञ्चकों को बड़ा ठीक रखना है । ६. ऊपर के पञ्चकों को ठीक करके उष्णिक् छन्दः = (उत् स्निह्यति) उत्कृष्ट स्नेह की तुम्हारी इच्छा हो। तुम्हारा प्रेम हीन वस्तुओं के साथ न हो। ७. बृहती छन्दः - (बृहि वृद्धौ) वृद्धि उन्नति की ही तुम्हारी कामना हो । ८. इसके लिए (अनुष्टुप् छन्दः) = अनुक्षण प्रभु-स्तवन की हम कामना करें। हमें कभी प्रभु - विस्मरण न हो। ९. तभी (विराट् छन्दः) = हम विशेषरूप से दीप्त होने की कामना कर सकेंगे। प्रभु स्मरण हमारे चेहरों को आनन्द से दीप्त कर देता है। अथवा प्रभु स्मरण ही हमें (विराट्) = विशिष्टरूप से व्यवस्थित [regulated] जीवनवाला बनाएगा १०. और हम गायत्री छन्दः-प्राण-रक्षण की इच्छा कर पाएँगे। व्यवस्थित जीवन में ही प्राण सुरक्षित रहते हैं। ११. इसके लिए तुमने (त्रिष्टुप् छन्दः) = काम, क्रोध व लोभ तीनों को रोकने की कामना करनी है। १२. जगती (छन्दः) = लोकहित में लगे रहने की इच्छा करनी। लोकहित में लगा हुआ व्यक्ति वासनाओं से बचा रहता है और दीर्घ जीवन पाता है।

    भावार्थ - भावार्थ - इस मन्त्र का प्रारम्भ 'मा' से है। समाप्ति 'जगती' पर है, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पत्ति का सर्वोत्तम विनियोग लोकहित ही है।

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