यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 23
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - भुरिग्ब्राह्मी पङ्क्तिः, भुरिगतिजगती
स्वरः - पञ्चमः, निषादः
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आ॒शुस्त्रि॒वृद्भा॒न्तः प॑ञ्चद॒शो व्यो॑मा सप्तद॒शो ध॒रुण॑ऽ एकवि॒ꣳशः प्रतू॑र्त्तिरष्टाद॒शस्तपो॑ नवद॒शोऽभीव॒र्त्तः स॑वि॒ꣳशो वर्चो॑ द्वावि॒ꣳशः स॒म्भर॑णस्त्रयोवि॒ꣳशो योनि॑श्चतुर्वि॒ꣳशो गर्भाः॑ पञ्चवि॒ꣳशऽ ओज॑स्त्रिण॒वः क्रतु॑रेकत्रि॒ꣳशः प्र॑ति॒ष्ठा त्र॑यस्त्रि॒ꣳशो ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ चतुस्त्रि॒ꣳशो नाकः॑ षट्त्रि॒ꣳशो वि॑व॒र्तोऽष्टाचत्वारि॒ꣳशो ध॒र्त्रं च॑तुष्टो॒मः॥२३॥
स्वर सहित पद पाठआ॒शुः। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। भा॒न्तः। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। व्यो॒मेति॒ विऽओ॑मा। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। ध॒रुणः॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। प्रतू॑र्त्ति॒रिति॒ प्रऽतू॑र्त्तिः। अ॒ष्टा॒द॒श इत्य॑ष्टाऽद॒शः। तपः॑। न॒व॒द॒श इति॑ नवऽद॒शः। अ॒भी॒व॒र्त्तः। अ॒भी॒व॒र्त्त इत्य॑भिऽव॒र्त्तः। स॒वि॒ꣳश इति॑ सऽवि॒ꣳशः। वर्चः॑। द्वा॒वि॒ꣳशः। स॒म्भर॑ण॒ इति॑ स॒म्ऽभर॑णः। त्र॒यो॒वि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽविं॒शः। योनिः॑। च॒तु॒र्वि॒ꣳशः इति॑ चतुःऽविं॒शः। गर्भाः॑। प॒ञ्च॒वि॒ꣳश इति॑ पञ्चऽवि॒ꣳशः। ओजः॑। त्रि॒ण॒वः। त्रि॒न॒व॒ इति॑ त्रिऽन॒वः। क्रतुः॑। ए॒क॒त्रि॒ꣳश इत्ये॑कऽत्रि॒ꣳशः। प्र॒ति॒ष्ठा। प्र॒ति॒स्थेति॑ प्रति॒ऽस्था। त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ त्रयःऽत्रि॒ꣳशः। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टप॑म्। च॒तु॒स्त्रि॒ꣳश इति॑ चतुःऽत्रि॒ꣳशः। नाकः॑। ष॒ट्त्रि॒ꣳश इति॑ षट्ऽत्रि॒ꣳशः। वि॒व॒र्त्त इति॑ विऽव॒र्त्तः। अ॒ष्टा॒च॒त्वा॒रि॒ꣳश इत्य॑ष्टाऽच॒त्वा॒रि॒ꣳशः। ध॒र्त्रम्। च॒तु॒ष्टो॒मः। च॒तु॒स्तो॒म इति॑ चतुःऽस्तो॒मः ॥२३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुस्त्रिवृद्भान्तः पञ्चदशो व्योमा सप्तदशो धरुणऽएकविँशः प्रतूर्तिरष्टादशस्तपो नवदशोभीवर्तः सविँशो वर्चा द्वाविँशः सम्भरणस्त्रयोविँशो योनिश्चतुर्विँशो गर्भाः पञ्चविँशःऽओजस्त्रिणवः क्रतुरेकत्रिँशः प्रतिष्ठा त्रयस्त्रिँशो ब्रध्नस्य विष्टपञ्चतुस्त्रिँशो नाकः षट्त्रिँशो विवर्ता ष्टाचत्वारिँशो धर्त्रञ्चतुष्टोमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
आशुः। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। भान्तः। पञ्चदश इति पञ्चऽदशः। व्योमेति विऽओमा। सप्तदश इति सप्तऽदशः। धरुणः। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। प्रतूर्त्तिरिति प्रऽतूर्त्तिः। अष्टादश इत्यष्टाऽदशः। तपः। नवदश इति नवऽदशः। अभीवर्त्तः। अभीवर्त्त इत्यभिऽवर्त्तः। सविꣳश इति सऽविꣳशः। वर्चः। द्वाविꣳशः। सम्भरण इति सम्ऽभरणः। त्रयोविꣳश इति त्रयःऽविंशः। योनिः। चतुर्विꣳशः इति चतुःऽविंशः। गर्भाः। पञ्चविꣳश इति पञ्चऽविꣳशः। ओजः। त्रिणवः। त्रिनव इति त्रिऽनवः। क्रतुः। एकत्रिꣳश इत्येकऽत्रिꣳशः। प्रतिष्ठा। प्रतिस्थेति प्रतिऽस्था। त्रयस्त्रिꣳश इति त्रयःऽत्रिꣳशः। ब्रध्नस्य। विष्टपम्। चतुस्त्रिꣳश इति चतुःऽत्रिꣳशः। नाकः। षट्त्रिꣳश इति षट्ऽत्रिꣳशः। विवर्त्त इति विऽवर्त्तः। अष्टाचत्वारिꣳश इत्यष्टाऽचत्वारिꣳशः। धर्त्रम्। चतुष्टोमः। चतुस्तोम इति चतुःऽस्तोमः॥२३॥
विषय - आशुः, चतुष्टोमः
पदार्थ -
१. (आशुः) [अश्नुते कर्मसु] = तू सदा कर्मों में व्याप्त होनेवाला बनता है और आलस्य को छोड़कर शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला होता है। कर्मों में व्याप्त होते हुए तू (त्रिवृत्) = [त्रिषु वर्त्तते] 'धर्म, अर्थ, काम' तीनों पुरुषार्थों में समरूप से वर्त्तनेवाला होता है। केवल 'धर्म' को अपनाकर, जटाधारी बन, अग्नि में आहुति ही नहीं देता रहता। केवल 'अर्थ' को अपनाकर 'मनी मेकिंग मशीन' = धनार्जन यन्त्र ही नहीं हो जाता और केवल 'काम' को ध्येय बनाकर निकम्मा नहीं हो जाता। २. (भान्तः) = ' भा कान्तिरेव अन्तः स्वरूपं यस्य' तू कान्त रूपवाले चन्द्रमा के समान बनता है, सदा आह्लादमय तेरा रूप होता है [चदि आह्लादे] और (पञ्चदशः) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों को उत्तम बनाकर पन्द्रहवाला बनता है। ३. (व्योमा) = 'विविधम् अवति'- तू (वी) = प्रकृति (ओम्) = परमात्मा व (अन्) = जीव [वी+ओम्+ अन्=व्योमन्] इन सभी का अपने में समन्वय करता है और सचमुच इन विविध तत्त्वों का अपने में रक्षण करता है। प्रकृति के अवन से तेरा भौतिक [material] अंश ठीक बनता है, जीव के अवन से तेरा सामाजिक [social] अंश ठीक होता है और प्रभु के अवन से तेरा अध्यात्म [spiritual] अंश ठीक होता है। इस प्रकार तू (सप्तदशः) = 'पाँच ज्ञानेन्द्रिय+पाँच कर्मेन्द्रिय+ पाँच प्राण+मन व बुद्धि' इन सत्रह तत्त्वों को ठीक रखनेवाला होता है। ४. (धरुणः) = [धरुण आदित्यः - श० ८।१।१।१२] आदित्य के समान प्रकाश आदि उत्तम तत्त्वों का आदान व धारण करनेवाला बनता है। इसी से तू (एकविंश:) = शरीर के धारण करनेवाले २१ तत्त्वोंवाला होता है ['ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रत: ] ५. (प्रतूर्ति:) = [प्रकृष्टा तूर्ति: त्वरा यस्य] जिसके जीवन में शीघ्रता है व आलस्य का अभाव है, ऐसा तू (अष्टादश:) = अठारह तत्त्वोंवाले इस सूक्ष्म शरीर का अधिष्ठाता (विराट्) = चमकनेवाला आत्मा बनेगा। ६. (तपः) = यदि तू तपस्या की प्रतिमूर्त्ति खूब तपस्वी जीवनवाला बनेगा तो (नवदशः) = शरीर के नौ द्वारों [अष्टाचक्रा नवद्वारा०] तथा दश प्राणों का अपनानेवाला होगा। तपस्या तेरे इन इन्द्रिय-द्वारों व प्राणों को स्वस्थ व शक्ति सम्पन्न बनाएगी। ७. (अभीवर्त्तः) = [अभि-वर्तते] उस प्रभु की ओर जानेवाला होगा तो (सविंश:) = तू बीस के साथ होगा। ये शरीर की दस इन्द्रियाँ व दस प्राण तेरे अधीन होंगे, ये तेरा साथ न छोड़नेवाले होंगे। प्रभु की ओर झुकाव से - प्रातः - सायं प्रभु स्मरण से प्रभु की शक्ति हमारी इन्द्रियों व प्राणों को सशक्त बनाएगी। ८. (वर्चः) = प्रभु - स्मरणवाला तू तब (वर्चस्वी) = वर्चस् का पुतला ही बन जाएगा तो (द्वाविंशः) = दस इन्द्रियों, दस प्राणों व मन और बुद्धि को पूर्ण स्वस्थ बनानेवाला होगा। ९. (सम्भरणः) = अपने में शक्ति का सम्यक् भरण करनेवाला तथा शक्ति के द्वारा सबका सम्यक् भरण करनेवाला तू (त्रयोविंश:) = दस इन्द्रियाँ, दस प्राण, मन-बुद्धि तथा चित्तवाला होगा। तेरे ये तेईस-के-तेईस तत्त्व ठीक होंगे। १०. (योनिः) = [यु- मिश्रण अमिश्रण] सब अच्छाइयों को अपने से संपृक्त व बुराइयों को असंपृक्त करनेवाला तू (सर्वस्थानभूतः) = सबको आश्रय देनेवाला (चतुर्विंश:) = चौबीस गुणोंवाला होगा। दर्शन में चौबीस ही गुण हैं, तथा मोक्ष में इन्हीं चौबीस शक्तियों से जीव सुख भोगता है। ११. (गर्भः) = [व्यत्ययेन बहुत्वम्] [गिरति अनर्थान् इति गर्भः] = सब अनर्थों को तू नष्ट करनेवाला हुआ है, इसी से तू (पञ्चविंश:) = चौबीस गुणों वा शक्तियों का अधिष्ठाता पच्चीसवाँ पुरुष हुआ है। १२. (ओज:) = तू ओजस्वी बना है [वज्रो वा ओजः] अनर्थों को दूर करनेवाले वज्र के समान तू हुआ है और इसी से चौबीस गुण तथा मन-बुद्धि व आत्म-तत्त्ववाला (त्रिणवः) = ३ गुणा ९ सताईस तत्त्वोंवाला तू है । १३. (ऋतु:) = ओजस्वी बने रहने के लिए तू ऋतुमय जीवनवाला है, सदा यज्ञशील है और इसी से (एकत्रिंश:) = चौबीस गुणों तथा सात रत्नोंवाला [दमे दमे सप्तरत्नं दधानम्] हुआ है। १४. प्रतिष्ठा यज्ञों के द्वारा तू प्रभु में प्रतिष्ठित हुआ है और (त्रयस्त्रिंशः) = सब तेतीस देवोंवाला बना है। १५• (ब्रध्नस्य विष्टपम्) = [असौ वा आदित्यो ब्रध्नः - श० ८|४|१|२३] ब्रह्मरूप = आधारवाला होकर तू 'आदित्यलोक' वाला हो गया है [ब्रध्नस्य विष्टपं स्वराज्यस्थापकम्] तू स्वतन्त्र, स्वराट् हो गया है। तुझमें किसी प्रकार की परतन्त्रता नहीं रह गई। इसी से (चतुस्त्रिंशः) = ३३ देव व ३४ वें महादेववाला तू है । १६. (नाक:) = अब स्वतन्त्र होकर - स्वराट् बनकर [सर्वमात्मवशं सुखम्] तू दुःख के लवलेश से भी रहित स्वर्ग में पहुँच गया है [न अकं दुखं यत्र] और (षट्त्रिंशः) = तू तेतीस देवों तथा धर्मार्थ- कामरूप तीनों पुरुषार्थोंवाला हुआ है। १७. (विवर्त्तः) = आज तू विशिष्ट ही वर्त्तनवाला बना है, तेरे सब कर्म दिव्य हो गये हैं और (अष्टाचत्वारिंशः) = २७ भागों में बटी हुई दैवी सम्पत् तथा शरीर की २१ शक्तियों को अपने में धारण करनेवाला बना है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से तेरा जीवन ऊँचा बना है। १८. (धर्त्रम्) = [वायुर्वाव धर्त्रम्] विशिष्ट क्रियाओंवाला बनकर तू वायु की भाँति सबका धारण करनेवाला है। तेरी गति स्वाभाविक रूप से है और तू सभी का हित करने में प्रवृत्त है, तू सभी का धारण कर रहा है और (चतुष्टोमः) = [चतुर्भिः दिग्भिः स्तूयते] चारों दिशाओं में तेरा स्तवन- ही स्तवन है, तेरी सर्वत्र कीर्ति हो रही है। अथवा चारों वेदज्ञानों के द्वारा तेरा स्तवन चल रहा है।
भावार्थ - भावार्थ- हमारा जीवन, ऊपर की अठारह बातों को धारण करके, पूर्ण यज्ञिय बन जाए, हम 'आशु' से जीवन को प्रारम्भ करें, शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले बनें और 'चतुष्टोम' पर हमारे जीवन का अन्त हो। चारों वेदों से हमारा प्रभु-स्तवन चल रहा हो ।
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