Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 56
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    0

    अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम्॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। ते॒। योनिः॑। ऋ॒त्वियः॑। यतः॑। जा॒तः। अरो॑चथाः। तम्। जा॒नन्। अ॒ग्ने॒। आ। रो॒ह॒। अथ॑। नः॒। व॒र्ध॒य॒। र॒यिम् ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्ते योनिरृत्वियो यतो जातोऽअरोचथाः । तञ्जानन्नग्नऽआरोहाथा नो वर्धया रयिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। ते। योनिः। ऋत्वियः। यतः। जातः। अरोचथाः। तम्। जानन्। अग्ने। आ। रोह। अथ। नः। वर्धय। रयिम्॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 56
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की ही भावना को कि 'हममें यज्ञों का प्रणयन हो', घर-घर में यज्ञ हों, प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार कहते हैं कि हे (अग्ने! अयं ते योनिः) = यह घर तो तेरा ही है। यह हमारा घर न होकर तेरा ही है। २. तू यहाँ ('ऋत्वियः') = [ऋतौ ऋतौ प्राप्तः] समय-समय पर प्राप्त होता है। तू यहाँ प्रातः-सायं सदा अग्निकुण्ड में उबुद्ध होता है। (यतः) = क्योंकि (जात:) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (अरोचथाः) = [रोचयसि] हम सबके जीवनों को दीप्त करनेवाला होता है। जिस घर में भी तेरा प्रणयन होता है, वहाँ तू सब गृहवासियों को सौमनस्य देनेवाला होता है। उनके जीवन को तू रोचक व आनन्दयुक्त कर देता है । ३. (तं जानन्) = अपने उस घर को जानता हुआ, अर्थात् घर की रक्षा को न भूलता हुआ तू (आरोह) = [पुनरुद्धरणाय प्रविश - म०] सबके उद्धार के लिए यहाँ प्रवेश कर। इस घर में तेरा स्थान सर्वोपरि हो। तू ही तो सब घरवालों का रक्षक है। ४. (अथ) = और अब हमें स्वस्थ व सुमनस् बनाकर (नः) = हमारे (रयिम्) = धन को (वर्धय) = बढ़ा। अग्नि हमारी सम्पत्ति को कम न करके बढ़ाता ही है। यह समझना कि 'पचास ग्राम घी जल गया' ठीक नहीं। वह घृत सूक्ष्म कणों में विभक्त होकर सर्वत्र फैल गया है, वह वायु में रोगकृमियों का नाशक बनता है, यही अग्नि का 'रक्षो दहन' है। अग्नि हमें स्वस्थ बनाता है। ठीक समय पर वृष्टि आदि का कारण बनकर प्रचुर मात्रा में पौष्टिक अन्नों के उत्पादन का कारण बनता है। इस प्रकार हमारे धनों की वृद्धि का हेतु होता है। दवाइयों के व्यय को भी समाप्त करके हमारे धनों का रक्षक बनता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारा घर यज्ञाग्नि का ही घर हो जाए-' यज्ञभवन' बन जाए । यह अग्नि हमारे स्वास्थ्य आदि का रक्षक और हमारे धनों का वर्धन करनेवाला हो ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top