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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 64
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - परमात्मा देवता छन्दः - आकृतिः स्वरः - पञ्चमः
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    प॒र॒मे॒ष्ठी त्वा॑ सादयतु दि॒वस्पृ॒ष्ठे व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीं॒ दिवं॑ यच्छ॒ दिवं॑ दृꣳह॒ दिवं॒ मा हि॑ꣳसीः। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्राय॑। सूर्य॑स्त्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥६४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। दि॒वः। पृ॒ष्ठे। व्यच॑स्वतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। दिव॑म्। य॒च्छ॒। दिव॑म्। दृ॒ꣳह॒। दिव॑म्। मा। हि॒ꣳसीः॒। विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नायेत्य॑पऽआ॒नाय॑। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। प्र॒ति॒ष्ठायै॑। प्र॒ति॒स्थाया॒ इति॑ प्रति॒ऽस्थायै॑। च॒रित्रा॑य। सूर्य्यः॑। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु॒। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मे॒नेति॒ शम्ऽत॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥६४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परमेष्ठी त्वा सादयतु दिवस्पृष्ठे व्यचस्वतीम्प्रथस्वतीम्दिवँयच्छ दिवन्दृँह दिवम्मा हिँसीः । विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्राय । सूर्यस्त्वाभिपातु मह्या स्वस्त्या च्छर्दिषा शन्तमेन तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परमेष्ठी। परमेस्थीति परमेऽस्थी। त्वा। सादयतु। दिवः। पृष्ठे। व्यचस्वतीम्। प्रथस्वतीम्। दिवम्। यच्छ। दिवम्। दृꣳह। दिवम्। मा। हिꣳसीः। विश्वस्मै। प्राणाय। अपानायेत्यपऽआनाय। व्यानायेति विऽआनाय। उदानायेत्युत्ऽआनाय। प्रतिष्ठायै। प्रतिस्थाया इति प्रतिऽस्थायै। चरित्राय। सूर्य्यः। त्वा। अभि। पातु। मह्या। स्वस्त्या। छर्दिषा। शन्तमेनेति शम्ऽतमेन। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवे। सीदतम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.३.१४-१९ व्याख्यातः]॥६४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 64
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    पदार्थ -
    १. (परमेष्ठी) = परमस्थान में स्थित प्रभु (त्वा) = तुझे (दिवः पृष्ठे सादयतु) = [दिव् कान्ति] कमनीय गृहस्थ-व्यवहार के आधार में स्थापित करे। सारे गृहस्थ-व्यवहार को सुन्दर प्रकार से चलाती हुई तू सचमुच उत्तम गृहिणी बन। २. (व्यचस्वतीम्) = तू प्रशस्त विद्याओं का व्यापन-अध्ययन करनेवाली है, इसीलिए आयुर्वेदादि शास्त्रों को जानने से तू उचित आहार के प्रापण से घर में सभी को नीरोग रखने का कारण बनती है। ३. (प्रथस्वतीम्) = [बहु प्रथ: प्रख्यातिः प्रशंसा विद्यते यस्यां ताम्] तू व्यवहार की कमनीयता व प्रशस्त विद्याध्ययन के कारण उत्तम प्रशंसावाली है। सब समाज में तेरी कीर्ति है । ४. (दिवं यच्छ) = तू अपने सन्तानों को ज्ञान का प्रकाश देनेवाली बन । (दिवं दृह) = अपने ज्ञान को दृढ़ कर । (दिवं मा हिंसी:) = ज्ञान को नष्ट मत होने दे। ५. (विश्वस्मै प्राणाय) = समग्र जीवन के सुख के लिए (अपानाय) = दुःख निवृत्ति के लिए (व्यानाय) = नाना विद्याओं की व्याप्ति के लिए उदानाय उत्तम बल के लिए (प्रतिष्ठायै) = सर्वत्र सत्कार की प्राप्ति के लिए और (चरित्राय) = सत्कर्मों के अनुष्ठान के लिए प्रभु ने तुझे इस गृह में स्थापित किया है। तूने गृहस्थ में रहते हुए सबकी प्राणापानव्यान व उदानशक्ति की वृद्धि का कारण बनना है। ६. (सूर्य:) = सूर्य के समान निरन्तर गतिशील जो तेरे पति हैं वे (त्वा अभिपातु) = तेरी रक्षा करें। किस प्रकार ? सबसे प्रथम तो [क] (मह्या) = एक सुन्दर गौ के द्वारा। घर में सबके स्वास्थ्य व सात्त्विक मनोवृत्ति को पैदा करने में गोदुग्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान निर्विवाद है। [ख] (स्वस्त्या) = स्वस्ति के द्वारा । कभी यह कहने का अवसर न आये कि 'अब तो इस घर की स्थिति ठीक नहीं'। घर सदा धन-धान्य से पूर्ण हो। [ग] (शन्तमेन छर्दिषा) = अधिक-से-अधिक शान्ति को देनेवाले घर से। घर का निर्माण इस प्रकार हो कि वहाँ सर्दियों में धूप का खूब प्रवेश हो और गर्मियों में धूप कम आये। घर में रहनेवालों के स्वास्थ्य पर किसी प्रकार का अवांच्छनीय [रद्दी] प्रभाव न हो। ७. इस घर में (तया देवतया) = उस प्रभु के सम्पर्क से (अङ्गिरस्वत्) = अङ्ग अङ्ग में रसवाले होकर तुम (ध्रुवे सीदतम्) = ध्रुव होकर निवास करो।

    भावार्थ - भावार्थ- पत्नी प्रशस्त विद्याओं का अध्ययन-मनन करनेवाली तथा उत्तम प्रशंसावाली व विशाल हृदयवाली हो। वह सबके प्राणापान आदि का वर्धन करनेवाली हो। पति सूर्य के समान सदा गतिशील होकर घर का रक्षण करे। घर में गौ हो, समृद्धि हो तथा घर स्वयं अधिक-से-अधिक शान्ति देनेवाला हो। इस घर में पति-पत्नी प्रभु का उपासन करते हुए अपनी शक्ति को अक्षीण रखते हुए ध्रुव होकर निवास करें।

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