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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 46
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - योद्वा देवता छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    प्रेता॒ जय॑ता नर॒ऽइन्द्रो॑ वः॒ शर्म॑ यच्छतु। उ॒ग्रा वः॑ सन्तु बा॒हवो॑ऽनाधृ॒ष्या यथास॑थ॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। इ॒त॒। जय॑त। न॒रः॒। इन्द्रः॑। वः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒तु॒। उ॒ग्राः। वः॒। स॒न्तु॒। बा॒हवः॑। अ॒ना॒धृ॒ष्याः। यथा॑। अस॑थ ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेता जयता नरऽइन्द्रो वः शर्म यच्छतु । उग्रा वः सन्तु बाहवो नाधृष्या यथासथ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। इत। जयत। नरः। इन्द्रः। वः। शर्म। यच्छतु। उग्राः। वः। सन्तु। बाहवः। अनाधृष्याः। यथा। असथ॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की भावना के अनुसार हमारे जीवन का लक्ष्य बनता है 'वासनाओं का समूल उन्मूलन'। यह वासनाओं का उन्मूलन करनेवाला व्यक्ति न रम्' है, 'न रम्'=न फँस जानेवाला। प्रभु कहते हैं कि हे (नराः) = [नृ नये] अपने को आगे ले चलनेवाले मनुष्यो ! प्रेत-आगे बढ़ो। वासनाएँ तुम्हारी उन्नति को विहत न कर दें। (जयत) = इन वासनाओं को जीतनेवाले बनो । इनको जीते बिना यात्रा की पूर्ति सम्भव नहीं । २. (इन्द्रः) = शक्ति के सब कार्यों को करनेवाला वह प्रभु (वः) = तुम्हें इन वासनाओं के संहार के द्वारा (शर्म) = कल्याण (यच्छतु) = प्राप्त कराए। वासनाओं से होनेवाले विनाश से प्रभु ही तुम्हें बचाएँगे । ३. (वः बाहवः) = तुम्हारी भुजाएँ (उग्रः) = तेजस्वी हों। 'बाह्र प्रयत्ने' = तुम्हारे प्रयत्न भी बड़े उग्र होने चाहिएँ, क्योंकि इन वासनाओं का विनाश कोई सुगम कार्य नहीं है। प्रभु की सहायता के बिना इन्हें तुम जीत ही न सकोगे और 'उत्तम प्रयत्नों में लगे रहना' यह वासना-विजय के लिए आवश्यक है । ४. इसी से मन्त्र में कहते हैं कि सदा उत्तम प्रयत्नों में लगे रहो (यथा) = जिससे (अनाधृष्या:) = वासनाओं से न धर्षण के योग्य (असथ) = हो सको। काम में न लगे हुए व्यक्तियों को ही वासनाएँ सताती हैं। क्रियाशील का ये धर्षण नहीं कर पातीं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम लक्ष्य की ओर आगे बढ़ें, विघ्नों को जीतें। प्रयत्न में लगे रहें, जिससे वासनाओं का शिकार न हों। प्रयत्न में लगे हुए को प्रभु भी कल्याण प्राप्त कराते हैं।

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