यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 60
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - आदित्यो देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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उ॒क्षा स॑मु॒द्रोऽअ॑रु॒णः सु॑प॒र्णः पूर्व॑स्य॒ योनिं॑ पि॒तुरावि॑वेश। मध्ये॑ दि॒वो निहि॑तः॒ पृश्नि॒रश्मा॒ वि च॑क्रमे॒ रज॑सस्पा॒त्यन्तौ॑॥६०॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्षा। स॒मु॒द्रः। अ॒रु॒णः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। पूर्व॑स्य। योनि॑म्। पि॒तुः। आ। वि॒वे॒श॒। मध्ये॑। दि॒वः। निहि॑त॒ इति॒ निऽहि॑तः। पृश्निः॑। अश्मा॑। वि। च॒क्र॒मे॒। रज॑सः। पा॒ति॒। अन्तौ॑ ॥६० ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्षा समुद्रोऽअरुणः सुपर्णः पूर्वस्य योनिम्पितुराविवेश । मध्ये दिवो निहितः पृश्निरश्मा विचक्रमे रजसस्पात्यन्तौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
उक्षा। समुद्रः। अरुणः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। पूर्वस्य। योनिम्। पितुः। आ। विवेश। मध्ये। दिवः। निहित इति निऽहितः। पृश्निः। अश्मा। वि। चक्रमे। रजसः। पाति। अन्तौ॥६०॥
विषय - पितृगृह प्रवेश [अन्तरक्षण] -
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अन्त में विश्वावसु के ज्ञान-विज्ञान के धारण का उल्लेख है । उसे धारण करके यह उक्षा उस ज्ञान का सेचन करनेवाला बनता है, उस ज्ञान को प्रजाओं में फैलाता है । २. (समुद्रः) = इस कार्य को करता हुआ यह सदा आनन्द में निवास करता है [स+मुद्] । हर्ष - शोक के वश में न होकर आनन्दमय बना रहता है। ३. (अरुण:) = अपनी तेजस्विता से 'आ-रक्त' वर्णवाला होता है। ४. (सुपर्णः) = उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाला होता है। ऐसा बनकर ५. (पूर्वस्य पितुः) = उस सबके प्रथम पिता प्रभु के (योनिम्) = स्थान में (आविवेश) = प्रवेश करता है, अर्थात् उस प्रभु की उपासना करता हुआ प्रभु से मेल करने का प्रयत्न करता है । ६. (मध्ये दिवः निहितः) = यह सदा ज्ञान के मध्य में निवास करता है। ७. (पृश्नि:) = [संस्प्रष्टा भासाम्] सब ज्ञान- रश्मियों का सम्पर्क करनेवाला होता है अथवा 'अल्पतनु' होता है, शरीर को बड़ा मोटा-ताज़ा करने में नहीं लगा रहता, परन्तु ८. (अश्मा) शरीर को पत्थर जैसा दृढ़ बनाता है । ९. शरीर की दृढ़ता के लिए ही (विचक्रमे) = विशिष्ट पुरुषार्थ करनेवाला होता है और (रजसः) = इस शरीररूप लोक के (अन्तौ) = अन्तों को, मस्तिष्क व चरणों को पाति-बड़ा सुरक्षित रखता है। इसका ज्ञान उत्तम व पवित्र होता है और उस ज्ञान के अनुसार इसके आचरण भी पवित्र होते हैं। विचार और आचार दोनों पवित्र होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- ज्ञान का प्रसार करनेवाला, सदा आनन्दमय, तेजस्वी, उत्तमता से अपना पूरण करनेवाला 'अप्रतिरथ' परमात्मा में पहुँचता है। सदा ज्ञान में स्थित [नित्य सत्यस्थ] ज्योतियों के स्पर्शवाला, दृढ़ शरीर यह निरन्तर पुरुषार्थ करता है और अपने विचार-आचार की बड़ी रक्षा करता है।
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