यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 75
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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वि॒धेम॑ ते पर॒मे जन्म॑न्नग्ने वि॒धेम॒ स्तोमै॒रव॑रे स॒धस्थे॑। यस्मा॒द् योने॑रु॒दारि॑था॒ यजे॒ तं प्र त्वे ह॒वीषि॑ जुहुरे॒ समि॑द्धे॥७५॥
स्वर सहित पद पाठवि॒धेम॑। ते॒। प॒र॒मे। जन्म॑न्। अ॒ग्ने॒। वि॒धेम॑। स्तोमैः॑। अव॑रे। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। यस्मा॑त्। योनेः॑। उ॒दारि॒थेत्यु॒त्ऽआरि॑थ। यजे॑। तम्। प्र। त्व इति॒ त्वे। ह॒वीषि॑। जु॒हु॒रे॒। समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धे ॥७५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विधेम ते परमे जन्मन्नग्ने विधेम स्तोमैरवरे सधस्थे । यस्माद्योनेरुदारिथा यजे तम्प्र त्वे हवीँषि जुहुरे समिद्धे ॥
स्वर रहित पद पाठ
विधेम। ते। परमे। जन्मन्। अग्ने। विधेम। स्तोमैः। अवरे। सधस्थ इति सधऽस्थे। यस्मात्। योनेः। उदारिथेत्युत्ऽआरिथ। यजे। तम्। प्र। त्व इति त्वे। हवीषि। जुहुरे। समिद्ध इति सम्ऽइद्धे॥७५॥
विषय - परम-जन्म
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = [योग- संस्कारों से अथवा] सुमति से दुष्ट कर्मों को दहन करनेवाले प्रभो! हम (परमे जन्मन्) = सर्वोत्कृष्ट जन्म के होने पर (ते विधेम) = आपकी पूजा [उपासना] करें। सुमति की प्राप्ति ही सर्वोत्कृष्ट जन्म है। इस सुमति का विकास करता हुआ पुरुष प्रभु की सर्वोत्तम पूजा करता है। २. हे अग्ने! हम (अवरे) = इस सबसे अवर स्थान में स्थित शरीर से जोकि (सधस्थे) = सब कोशों के एक स्थान में स्थित होने की जगह है अथवा जहाँ इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सभी एकचित्त हैं, उस शरीर में (स्तोमैः) = स्तुति-समूहों से (ते विधेम) = तेरी पूजा करते हैं। हमारी इन्द्रियाँ, हमारा मन व हमारी बुद्धि ये सब-के-सब इस शरीर में स्थित होकर तेरा ही स्तवन करते हैं । ३. (यस्मात् योने) = जिस भी कारण से (उदारिथा:) = आप उत्कृष्टता से प्राप्त होते हो (तम्) = उसको (यजे) = अपने साथ सङ्गत करता हूँ। मैं आपकी प्राप्ति के लिए [क] बुद्धि का विकास करता हूँ, यही 'परम जन्म'-' उत्कृष्ट विकास' है। [ख] शरीर को पूर्ण स्वस्थ करने का यत्न करता हूँ। इस स्वस्थ शरीर में ही सह स्थित होकर बुद्धि, मन व इन्द्रियाँ आपका स्तवन करेंगी। [ग] आपकी प्राप्ति के जो और भी साधन हैं उन्हें मैं अपने में ग्रहण करता हूँ। ४. (त्वे समिद्धे) = आपके समिद्ध होने पर ये स्तुति करनेवाले 'गृत्स' लोग (हवींषि प्रजुहुरे) = हवियों को अपने में आहुत करते हैं। हव्य पदार्थों का ही सेवन करते हैं। सात्त्विक अन्नों के प्रयोग से सात्त्विक वृत्तिवाले बनकर सदा आपका स्तवन करते हुए कर्त्तव्य का पालन करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - १. हम प्रभु की उपासना ज्ञान के विकास के द्वारा करें, यही परम उपासना है। २. मन, बुद्धि व इन्द्रियों से प्रभु का स्मरण करें यही मध्यम उपासना है। तथा ३. प्रभु-प्राप्ति के उपायों को अपनाएँ, यही उपासना का प्रारम्भ है। इस सबके लिए मैं हवियों का ग्रहण करूँ।
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