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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 89
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स॒मु॒द्रादू॒र्मिर्मधु॑माँ॒२ऽउदा॑र॒दुपा॒शुना॒ सम॑मृत॒त्वमा॑नट्। घृ॒तस्य॒ नाम॒ गुह्यं॒ यदस्ति॑ जि॒ह्वा दे॒वाना॑म॒मृत॑स्य॒ नाभिः॑॥८९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रात्। ऊ॒र्मिः। मधु॑मा॒निति॒ मधु॑ऽमान्। उत्। आ॒र॒त्। उप॑। अ॒ꣳशुना॑। सम्। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒त्वम्। आ॒न॒ट्। घृ॒तस्य॑ नाम॑। गुह्य॑म्। यत्। अस्ति॑। जि॒ह्वा। दे॒वाना॑म्। अ॒मृत॑स्य। नाभिः॑ ॥८९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रादूर्मिर्मधुमाँऽउदारदुपाँशुना सममृतत्वमानट् । घृतस्य नाम गुह्यँयदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रात्। ऊर्मिः। मधुमानिति मधुऽमान्। उत्। आरत्। उप। अꣳशुना। सम्। अमृतत्वमित्यमृतत्वम्। आनट्। घृतस्य नाम। गुह्यम्। यत्। अस्ति। जिह्वा। देवानाम्। अमृतस्य। नाभिः॥८९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 89
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    पदार्थ -
    १. प्रभु को प्राप्त करके हम सब देवों को प्राप्त कर लेते हैं और प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'वामदेव' = सुन्दर, दिव्य गुणोंवाले होते हैं। समुद्रात् आनन्दमय प्रभु से (मधुमान्) = माधुर्यवाली (ऊर्मि:) = लहर (उदारत्) = [ऊर्ध्वं आप्नोति] उत्कृष्टता से हमें प्राप्त होती है, अर्थात् हमारा जीवन तरंगित हृदयवाला होता है। हमारे जीवन में उल्लास-ही-उल्लास होता है। २. (उप अंशुना) = उस समीपस्थ प्रभु की ज्ञान-किरणों से यह उपासक (अमृतत्वम्) = अमृतत्व को (समानट्) = [सम् आनट्] सम्यक्तया प्राप्त करनेवाला होता है। ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह भौतिक वस्तुओं के पीछे भागता नहीं फिरता, उनके प्रलोभन से यह ऊपर उठ जाता है। यही वस्तुतः 'अमृतत्व' है । ३. (घृतस्य) = उस ज्ञान की दीप्तिवाले प्रभु का (यत्) = जो (गुह्यम्) = गुह्यं (भवम्) = हृदयरूप गुहा में होनेवाला, अर्थात् हृदय को प्रिय नाम (नाम अस्ति) = है, वह (देवानाम् जिह्वा) = इन देवों की जिह्वा पर सदा निहित होता है। ये अपनी जिह्वा से सदा प्रभु के नाम का स्मरण करते हैं। प्रभु का स्मरण करते हुए सब कर्मों को करते हैं ४. इसीलिए (अमृतस्य नाभि:) = अमृत मोक्ष का अपने में बन्धन करनेवाले होते हैं [नह बन्धने] । प्रभु का स्मरण व जीवन-संग्राम को जारी रखना, इसे जीवन-सूत्र बनाकर ये मोक्ष को सिद्ध करते हैं। इनकी जिह्वा पर प्रभु नाम होता है, हाथों में कर्म । इस समन्वय के कारण इनके कर्म पवित्र होते हैं और इनकी मोक्ष प्राप्ति का कारण बनते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - १. प्रभु के प्रकाश में हृदय उल्लासमय होता है। २. प्रभु की समीपता के परिणामस्वरूप ज्ञान की किरणों से द्योतित हृदयवाले असङ्गशस्त्र से इस संसार वृक्ष को काट पाते हैं। ३. प्रभु का नाम हमारी जिह्वा पर हो, हाथों से कर्म करें, तभी हम मोक्ष प्राप्त कर पाएँगे।

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