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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 94
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स॒म्यक् स्र॑वन्ति स॒रितो॒ न धेना॑ऽअ॒न्तर्हृ॒दा मन॑सा पू॒यमा॑नाः। ए॒तेऽअ॑र्षन्त्यू॒र्मयो॑ घृ॒तस्य॑ मृ॒गाऽइ॑व क्षिप॒णोरीष॑माणाः॥९४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्यक्। स्र॒वन्ति॒। स॒रितः॑। न। धेनाः॑। अ॒न्तः। हृ॒दा। मन॑सा। पू॒यमा॑नाः। ए॒ते। अ॒र्ष॒न्ति॒। ऊ॒र्मयः॑। घृ॒तस्य॑। मृ॒गाःऽइ॑व। क्षि॒प॒णोः। ईष॑माणाः ॥९४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्यक्स्रवन्ति सरितो न धेनाऽअन्तर्हृदा मनसा पूयमानाः । एतेऽअर्षन्त्यूर्मयो घृतस्य मृगाऽइव क्षिपणोरीषमाणाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्यक्। स्रवन्ति। सरितः। न। धेनाः। अन्तः। हृदा। मनसा। पूयमानाः। एते। अर्षन्ति। ऊर्मयः। घृतस्य। मृगाःऽइव। क्षिपणोः। ईषमाणाः॥९४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 94
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    पदार्थ -
    १. (अन्तर्हृदा) = हृदय के अन्दर से (मनसा पूयमाना:) = मन से पवित्र की जाती हुई (धेनाः) = ज्ञान की वाणियाँ (सरितः न) = नदियों के समान सम्यक् स्रवन्ति = उत्तमता से प्रवाहित होती हैं। जब हृदय निर्मल होता है तब प्रभु के प्रकाश में यह जगमगा उठता है। विचार के द्वारा ये वाणियाँ हमारे जीवन को पवित्र करनेवाली होती हैं । २. (एते) = ये (घृतस्य) = ज्ञान की (ऊर्मयः) = तरंगे (अर्षन्ति) = उद्गत होती हैं और (क्षिपणो:) = व्याध से (मृगाः इव) = मृगों के समान (ईषमाणा:) = सब बुराइयाँ इस ज्ञानी से दूर भागनेवाली होती हैं। ज्ञान का परिणाम वासनादहन ही तो है। ज्ञान हुआ और वासना गई।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारे हृदय में ज्ञान की वाणियाँ नदियों के समान प्रवाहित हों। ये मनन द्वारा हमें पवित्र बनानेवाली हों। व्याध से मृगों के समान वासनाएँ हमसे भयभीत होकर दूर भाग जाएँ।

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