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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 70
    ऋषिः - शास ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    वि न॑ऽइन्द्र॒ मृधो॑ जहि नी॒चा य॑च्छ पृतन्य॒तः। योऽअ॒स्माँ२ऽअ॑भि॒दास॒त्यध॑रं गमया॒ तमः॑॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृधः॑। ज॒हि॒। नी॒चा। य॒च्छ॒। पृ॒त॒न्य॒तः। यः। अ॒स्मा॒न्। अ॒भिदास॒तीत्य॑भि॒ऽदास॑ति। अध॑रम्। ग॒म॒य॒। तमः॑ ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि नऽइन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः । योऽअस्माँ अभिदासत्यधरङ्गमया तमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वि। नः। इन्द्र। मृधः। जहि। नीचा। यच्छ। पृतन्यतः। यः। अस्मान्। अभिदासतीत्यभिऽदासति। अधरम्। गमय। तमः॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 70
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र का ऋषि इन्द्र काम-क्रोधादि आसुरवृत्तियों का संहार करके सब पापों से अपने को बचानेवाला [विश्व-मित्र] विश्वामित्र बना था। यह अपने पर पूर्णरूप से शासन करनेवाला होने से 'शास' कहलाता है। यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करके ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारी (मृध:) = [murder ] हत्या करनेवाले इन कामादि शत्रुओं को (विजहि) = विशेषरूप से नष्ट कर दीजिए । २. (पृतन्यतः) = हमारे साथ संग्राम की इच्छावाले इन शत्रुओं को (नीचा यच्छ) = नीचा दिखाइए। इन्हें हमारे पाँव तले रौंद दीजिए । ३. इन वासनारूप शत्रुओं में (यः) = जो भी (अस्मान्) = हमें (अभिदासति) = इहलोक व परलोक दोनों ओर से [अभि] नष्ट करना चाहता है [दस् उपक्षये] उसे आप (अधरम् तमः) = पाताललोक के अन्धकार को (गमय) = प्राप्त कराइए। ये वासनाएँ पाताल में ही कैद - सी रहें। इनका निवास तो असुर्यलोकों में ही ठीक है। हमारे साथ इनका क्या सम्बन्ध ? इनमें फँसकर तो हम भी उन असुर्यलोकों में ही घसीटे जाएँगे, अतः हे प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिए कि मैं इन वासनाओं से अभिभूत होकर नष्ट न हो जाऊँ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम वासनाओं को नष्ट करके उन्हें पूर्णरूप से वशीभूत करके अपने 'शास' नाम को यथार्थ करें।

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