Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 30
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    0

    व्र॒तेन॑ दी॒क्षामा॑प्नोति दी॒क्षया॑प्नोति॒ दक्षि॑णाम्। दक्षि॑णा श्र॒द्धामा॑प्नोति श्र॒द्धया॑ स॒त्यमा॑प्यते॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्र॒तेन॑। दी॒क्षाम्। आ॒प्नो॒ति॒। दी॒क्षया॑। आ॒प्नो॒ति॒। दक्षि॑णाम्। दक्षि॑णा। श्र॒द्धाम्। आ॒प्नो॒ति॒। श्र॒द्धया॑। स॒त्यम्। आ॒प्य॒ते॒ ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    व्रतेन। दीक्षाम्। आप्नोति। दीक्षया। आप्नोति। दक्षिणाम्। दक्षिणा। श्रद्धाम्। आप्नोति। श्रद्धया। सत्यम्। आप्यते॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति 'संस्था' - ब्राह्मीस्थिति पर थी, यही प्रस्तुत मन्त्र में 'सत्य की प्राप्ति' इन शब्दों से कही जा रही है। उस सत्य की प्राप्ति का क्रम यह है-(व्रतेन) = व्रत से (दीक्षाम्) = दीक्षा को (आप्नोति) = प्राप्त होता है। यहाँ मानव जीवन का प्रारम्भ है। इस प्रारम्भिक ब्रह्मचर्याश्रम में व्यक्ति व्रत के द्वारा नियम के द्वारा (दीक्षा) = [self devotion]आत्मभक्ति [ब्रह्मचर्य - प्रभु की ओर चलना]का निश्चय करता है। वस्तुतः हम अपने जीवन में क्रमश: 'माता-पिता-आचार्य अतिथि' व प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनते हैं। यही हमारे जीवन की 'पंचायतनपूजा' है। भौतिक क्षेत्र में इन पाँचों का क्रमशः पृथिवी आदि के साथ सम्बन्ध है। माता पृथिवी है, पिता सब कष्टों का निवारण करने का प्रयत्न करता हुआ (वारि) = जल के तुल्य है, आचार्य अग्नि है, अतिथि वायु की भाँति निरन्तर भ्रमण करनेवाला है और प्रभु समन्तात् दीप्त आकाश के समान हैं। हम उत्तरोत्तर इनके प्रति अपना अर्पण करते हैं, यही अर्पण 'दीक्षा' है। इस दीक्षा के लिए व्रत का ग्रहण करना होता है, अन्यथा दीक्षा सम्भव ही नहीं । २. अब गृहस्थ में (दीक्षया) = इस दीक्षा के द्वारा (दक्षिणाम्) = दक्षिणा को (आप्नोति) = प्राप्त करता है। दीक्षित अनायास दान की वृत्तिवाला होता है। गृहस्थ का मौलिक कर्त्तव्य 'दक्षिणा' है, जिस प्रकार ब्रह्मचारी का मौलिक कर्त्तव्य 'आत्मसमर्पण' था। ३. अब वानप्रस्थ में इस दक्षिणा देने की वृत्ति से (श्रद्धाम्) = [सत्-सत्यं धा = धारण]सत्य के धारण को (आप्नोति) = प्राप्त करता है, अर्थात् जितना जितना देता है उतना उतना सत्य का धारण चलता है। न देना ही असत्य की ओर जाना है। अपरिग्रह सत्य की ओर ले जाता है और परिग्रह असत्य में फँसाता है । ४. अब ब्रह्माश्रम [संन्यास]में (श्रद्धया) = इस सत्यधारण की वृत्ति से अन्ततः (सत्यम्) = वह सत्य प्रभु (आप्यते) = प्राप्त किया जाता है। सत्य का धारण करते हुए धीमे-धीमे हम पूर्णसत्य को अपना पाते हैं। ,

    भावार्थ - भावार्थ- हम अपने जीवन में व्रती बनें, दीक्षित हों, दक्षिणा दान की वृत्तिवाले हों, इस दान की वृत्ति से उत्तरोत्तर सत्य का अपने में धारण करते हुए पूर्णसत्य को प्राप्त करनेवाले बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top