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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 40
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इन्द्रं॒ दुरः॑ कव॒ष्यो धाव॑माना॒ वृषा॑णं यन्तु॒ जन॑यः सु॒पत्नीः॑। द्वारो॑ दे॒वीर॒भितो॒ विश्र॑यन्ता सु॒वीरा॑ वी॒रं प्रथ॑माना॒ महो॑भिः॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म्। दुरः॑। क॒व॒ष्यः᳖। धाव॑मानाः। वृषा॑णम्। य॒न्तु॒। जन॑यः। सु॒पत्नी॒रिति॑ सु॒ऽपत्नीः॑। द्वारः॑। दे॒वीः। अ॒भितः॑। वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। सु॒वीरा॒ इति॑ सु॒ऽवीराः॑। वी॒रम्। प्रथ॑मानाः। महो॑भि॒रिति॒ महः॑ऽभिः ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रम्दुरः कवष्यो धावमाना वृषाणँयन्तु जनयः सुपत्नीः । द्वारो देवीरभितो विश्रयन्ताँ सुवीरा वीरम्प्रथमाना महोभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। दुरः। कवष्यः। धावमानाः। वृषाणम्। यन्तु। जनयः। सुपत्नीरिति सुऽपत्नीः। द्वारः। देवीः। अभितः। वि। श्रयन्ताम्। सुवीरा इति सुऽवीराः। वीरम्। प्रथमानाः। महोभिरिति महःऽभिः॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -
    १. (इन्द्रम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जितेन्द्रिय वृषाणम् शक्तिशाली पुरुष को (कवष्य:)[ कूयन्ते स्तूयन्ते] स्तुति के योग्य अथवा (कवष्य:) = [ Shield] ढालरूप (धावमाना:) = जीवन को बड़ा शुद्ध बनानेवाले [धाव् =शुद्धि] दुर:-द्वार- 'मुख पायु-उपस्थ व ब्रह्मरन्ध्र' रूप चार द्वार (यन्तु) = प्राप्त हों। ये चारों द्वार उसके लिए (जनयः) = प्रादुर्भाव का कारण बनें, उसकी शक्तियों का विकास करनेवाले हों और (सुपत्नी:) = उत्तमता से उसका रक्षण करनेवाले हों। मुख उत्तम सात्त्विक भोजन का ग्रहण करता है-पायु शरीर में से मलांश को पृथक् करके शरीर का रक्षण करता है। उपस्थ वशीभूत होकर उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाला होता है और वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर यह सचमुच प्रभु के उपस्थान का कारण बनता है। ब्रह्मरन्ध्र अन्त में आत्मा के शरीर से निकलने का मार्ग होने पर मोक्ष व ब्रह्म-प्राप्ति का कारण बनता है। २. ये (द्वार:) = चारों द्वार (देवी:) = दिव्य द्वार हैं। एक [मुख] उत्तम भोजन के द्वारा शरीर में बल व प्राण का आधान करनेवाला है तो दूसरा [पायु] मलशोधन के द्वारा अपान की शक्ति को ठीक रखकर शरीर को स्वस्थ बनाता है। एवं, ये दोनों द्वार मिलकर शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करते हैं। उपस्थ व ब्रह्मरन्ध्र मनुष्य की आत्मिक शक्ति के विकास का साधन बन मोक्ष प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार ये चारों द्वार दिव्य हैं। ये (अभितः) = दोनों ओर (विश्रयन्ताम्) = विवृत हों। विवृत होकर ये अपने कार्यों को उत्तमता से करनेवाले हों, अथवा ये शरीर में विशिष्टरूप से सेवा करनेवाले हों। [श्रिञ् सेवायाम्] अभितः शब्द का प्रयोग इसलिए हुआ है कि एक ओर मुख है तो दूसरी ओर पायु तथा एक ओर उपस्थ है तो दूसरी ओर ब्रह्मरन्ध्र ३. (सुवीराः) = ये चारों द्वार उत्तमता से [सु] विशेष करके [वि] बुराइयों को दूर करनेवाले [ईर् कम्पने] हैं। ये चारों द्वार (महोभि:) = अपने-अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों से अथवा तेजस्विताओं से (वीरं प्रथमाना:) = वीर पुरुष का विस्तार करनेवाले होते हैं, अर्थात् उस पुरुष को वीर बनाते हैं। मुख और पायु मुझे शरीर के दृष्टिकोण से वीर बनाते हैं, उपस्थ और ब्रह्मरन्ध्र मुझे आत्मिक बल प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- 'मुख - पायु, उपस्थ व ब्रह्मरन्ध्र' रूपी दिव्य द्वार स्तुत्य हैं। ये हमारे जीवनों को पवित्र बनानेवाले हैं। इनके अपना-अपना कार्य ठीक रूप से करने पर हम शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ व सुन्दर बनते हैं और आत्मिक बल व वीरता को प्राप्त करते हैं। सूचना - 'कवष्यः' 'कु शब्दे' से बनकर मुख के कार्य का संकेत करता है धावमानाः' 'धाव् शुद्धौ' से बनकर पायु के कार्य का, 'जनयः' उपस्थ के कार्य का संकेत करता है और 'सुपत्नी:' 'पा रक्षणे' से बनकर ब्रह्मरन्ध्र के कार्य का ।

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